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सुज्येष्ठा-तो बहिन ! तू उस चित्र को ले आ, मेरा भी दिल उसे देखने को चाहता है।
सखी व्यौपारी के यहाँ जाकर उस चित्र को ले आई। उसे देखते ही, सुज्येष्ठा चकित रह गई और बड़े गौर से फिर उस चित्र को देखने लगी । यह देखकर उसकी एक सखी ने कहा-" बहिन ! देखती क्या हो ? सारे भारतवर्ष में, आज ऐसा और कोई राजा नहीं है "। सुज्येष्ठा बोली-" सच्ची बात है, इस चित्र को अब यहीं रख दो"। सखीने फिर कहा-" बहिन ! वापस लौटाने की शर्त पर ही में इस चित्र को लाई हूँ, अतः इसे यहाँ तो कैसे रख सकते हैं ? " । यों कहकर, वह उस चित्र को वापस दे आई।
चित्र वापस चला गया । अब सुज्येष्ठा उसी की चिन्ता में पड़ गई । वह सोचने लगी-" मैंने श्रणिक की तारीफ तो सुनी थी, किन्तु उनका स्वरूप न देखा था। अहा ! वे कैसे भारी रूपवान हैं! पिताजी ने कुलके अभिमान के कारण उनका अपमान कर दिया, किन्तु उनसे बढ़कर हमारे लिये और कौन-सा पति है? यदि मैं विवाह करूँगी, तो केवल श्रेणिक के ही साथ!"
किन्तु उसे जब यह ध्यान आया, कि पिताजी से छिपाकर चुपके से मैं अपना विवाह सरलतापूर्वक नहीं