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खिले चंपा चमेली और मालती रे ॥ झम, भौंरा करे गुंजारिया रे॥ ॥सखि०॥ आली देखो तालाब की तरंगिया रे ॥ हंस बैठे हैं पंख पसारिया रे सखि०॥ कैसी कैसी वसंत की तैयारिया रे॥ सखी नाचो तो देदे तारिया रे ॥ ॥सखि०॥
गायन सुन लेने के बाद, मुज्येष्ठा के मुंह से सहसा निकल पड़ा-“वाह ! चेलणा, तुम धन्य हो । तुमने कैसा मधुर-गीत गाया !"
इस तरह, निर्दोष-आनन्द लूटकर, दोनों-बहनें अलगअलग, अपना-अपना काम करने लगीं।
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मुज्येष्ठा जब अपने कमरे में पहुँची, तो उससे एक सखी ने कहा-"बहिन ! आज मैंने एक बड़ा-अच्छा चित्र देखा है । उस चित्र में बैठे हुए मनुष्य की सुन्दरता का वर्णन नहीं किया जा सकता। मैने तो अपने जीवन में कभी ऐसी सुन्दरता देखी ही नहीं।" मुज्येष्ठा ने पूछ-"वह चित्र कहाँ है ?"
सखी-बहिन, ऐक इत्र के व्यापारी के यहाँ। सुज्येष्ठा-किन्तु वह चित्र है किसका ? सखी-मगधदेश के महाराजा श्रेणिक का!