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मुज्येष्ठा-बहिन चेलणा! कैसे सुन्दर वसन्त के
चेलणा-बहिन ! इसमें तो कहना ही क्या है ? सारी प्रकृति एक अनुपम-संगीत के शब्द से गूंज-सी रही है। यह सब देखकर मेरा तो यही जी चाहता है, कि मैं भी सारे दिन गाया ही करूँ।
सुज्येष्ठा-अहा ! कैसा सुन्दर विचार है ! बहिन चेलणा! तुम्हारे मीठे-गायन से, प्रकृति के इस आनन्द में वृद्धि होगी, इसलिये तुम अवश्य हो एक मीठा-गीत गाओ।
चेलणा ने गाना शुरू किया:
रास (देशी-- हुं तो ढोले { ने हरि सांभरे रे )
सखि आई वसन्त की बहारिया रे ।।
सव मिलकरके जाओ वारिया रे ॥ नीला-नीला आकाश मन मोहता रे ॥ दीखें सोने के साथिये की क्यारिया रे ॥ ॥सखि०॥ सखि अम्बा की डाल मोर पींग झूलते ॥ और कोयल करे दुहुकारिया रे
॥सखि०॥