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कहा-" अभयकुमार ! जेल से छूटने के अतिरिक्त, तुम
और जो चाहो, वह वरदान मागो"। अभय ने कहा --" आपका यह वचन, अभी आपके पास अमानत रखता हूँ, जब मांगने का मौका आवेगा, तब माँगूंगा"।
अभयकुमार ने, और भी ऐसे ही तीन बुद्धिमानीपूर्ण काम किये । प्रति बार,राजा चण्डप्रद्योत ने उन्हें एक-एक वरदान देने का वचन दिया।
जब, सब मिलाकर चार वचन होगये, तब एक दिन अभयकुमार ने कहा-" महाराज ! अब मैं अपने वरदान भागना चाहता हूँ"।
चण्डप्रद्योत ने कहा-" खुशी से माँगो, किन्तु जेल से छूटने के अतिरिक्त ही वरदान मांगना"।
अभयकुमार--" बहुत अच्छा, मैं ऐसे ही वरदान मानूँगा"।
यों कहकर उन्होंने फिर कहा-" महाराज, आप और ओपकी रानी शिवादेवी, अनलगिरि हाथी पर बैठे। आप दोनों के बीच में, मैं बैटूं । फिर, आपका रत्न गिना जानेवाला अग्मिभीरु रथ मँगाओ और उसकी चिता बनवाओ । उस चिता में हम सब साथ-साथ जलकर मर जावें । बस, मैं इतना ही माँगता हूँ।"