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घर आकर अभय ने अपने नगर के चतुर-चतुर चित्रकारों को बुलवाया और उनसे कहा-" महाराजाश्रेणिक का एक सुन्दर-चित्र तयार करो। अपनी सारी कला लगाकर उसे अच्छा बनाओ और ध्यान रखो, कि उसमें ज़रा भी कसर न रहने पावे ।" चित्रकारों ने रात-दिन परिश्रम करके एक सुन्दर-चित्र तयार किया। अभय ने भो चित्रकारों को खूब इनाम देकर प्रसन्न किया।
उस चित्र को लेकर अभयकुमार वैशाली आये । वहाँ आकर उन्होंने अपना नाम धनसेठ रखा और राजमहल के नीचे अपनी दुकान खोली । उनकी दूकान पर तरह-तरह के इत्र तेल आदि बिकते और दूसरी भी अनेक प्रकार की वस्तुएँ बिकती थीं। धनसेठ, बड़ी पीठी-चाणी बोलते थे । जो ग्राहक उनके यहा माल लेने आता, वह प्रसन्न होकर जाता था। इसके अतिरिक्त, वे अपना माल बेचते भी थे बहुत सस्ता और माल भी बहुत बढ़िया रखते थे। यही कारण था. कि थोड़े ही दिनों में उनकी दुकान अच्छी तरह जम गई । यों तो सब लोग उनके यहा सौदा खरीदते ही थे, किन्तु उनको दूकान की प्रतिष्ठा थोड़े दिनों में इतनी बढ़ी, कि राजा के रनवास