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________________ हाथ से चार-हत्याएँ और वे भी बड़ी से बड़ी ? ब्रह्म-हत्या, गौ-हत्या, स्त्री-हत्या और बाल-हत्या ? अरे-रे ! मैंने यह क्या कर डाला ? मुझे धिक्कार है !" लुट-पाट के पश्चात् दृढ़प्रहारी अपने दल के साथ नगर से बाहर निकला। किन्तु उन हत्याओं का दृश्य उसकी आँखों के सामने अब भी नाच रहा था । उसका हृदय भीतर ही भीतर जला जा रहा था। इस मानसिकवेदना के कारण यम के समान कठोर और क्रूर दृढ़पहारी ठण्डा पड़ गया। चलते-चलते, वह एक वन में पहुँचा । वहां एक मुनिराज उसे दिखाई दिये। वे समता के भण्डार और प्रेम की मूर्ति थे। उन्हें देखते ही दृढ़प्रहारी का हृदय. भर आया । वह मुनिराज के चरणों में गिर पड़ा और फूट-फूटकर रोने लगा। मुनि बोले-हे महानुभाव! शान्त हो इतना शोक.. क्यों करता है ? दृढ़प्रहारी ने कहा-प्रभो ! मैं महा-पापी लिये संसार में कहीं भी स्थान नहीं है ! मुनि ने उत्तर दिया-भाई ! निराश न हो। इस संसार में पापियों के रहने के लिये भी स्थान है । पि
SR No.023378
Book TitleHindi Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Bhajamishankar Dikshit
PublisherJyoti Karayalay
Publication Year1932
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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