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चन्द्रप्रभ प्रभु, चैत्रीपूर्णिमा, शत्रुजयगिरि, और शत्रुजया नदी - ये पाँच वस्तुएं पुण्य के बिना कभी भी प्राप्त नहीं होती । जो भव्य आत्मा चैत्रीपूर्णिमा के दिन जिनालय में शांतिक कर्म या ध्वजारोपण करता है, और आरती उतारता है, वह उत्तरोत्तर कर्मरज रहित संसारस्थिति को प्राप्त करता है । चैत्रीपूर्णिमा को कदाचित् अन्य स्थान पर रह कर भी जो संघपूजा करता है वह भी स्वर्ग के सुख प्राप्त करता है, तो विमलाचल तीर्थ पर करने में आवे उसके फल का क्या कहना? चैत्रीपूर्णिमा को वस्त्र तथा अन्नपान आदि से जो मुनि की भक्ति की हो तो उसके योग से आत्मा चक्रवर्ती और इन्द्र का पद पाकर, अनुक्रम से मोक्ष पाता है । सब पुण्यों को बढाने वाला चैत्रीपूर्णिमा का पर्व सब पर्यों में उत्तम और श्रेष्ठ है । देवता भी नंदीश्वर द्वीप में इस दिन गिरि पर जाकर भक्ति से जिनपूजादि से इस पर्व की आराधना करते हैं; इसलिए धर्मबुद्धि वाले भव्य प्राणी को भी चैत्रीपूर्णिमा के मंगलकारी दिन प्रमाद के हेतुरूप विकथा, कलह, क्रीडा
और अनर्थदंड आदि कोई भी पापाचरण नहीं करना चाहिए, मात्र धर्मकार्य में ही गति करनी चाहिए । वैसे ही चैत्रीपर्व के दिन अक्षयसिद्धि के लिए जैनशासन की प्रभावना और जिनचैत्य की, सिद्धांत की, तथा सुपात्र गुरुमहाराज की भक्ति करनी चाहिए।
शत्रुञ्जय तीर्थ