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चैत्रीपूर्णिमा की महिमा
इस अवसर्पिणी में जैसे श्री ऋषभदेवस्वामी प्रथम तीर्थंकर हुए, वैसे ही पुंडरीक स्वामी आदि के निर्वाण से, उसके बाद यह तीर्थ प्रसिद्ध हुआ। जहाँ मात्र एक मुनि सिद्ध हो, वह भी तीर्थ कहलाता है; तो श्री शत्रुजयगिरि पर तो इतने सारे मुनिवर सिद्ध हुए, इसिलए यह तीर्थोत्तम-तीर्थ कहलाता है। भगवान ऋषभदेवस्वामी फाल्गुन मास की शुक्लाष्टमी के महापवित्र दिन शत्रुजयगिरिराज पर पधारे थे, इस कारण जगत में यह फागण सुदि आठम का दिन महापर्व के रूप में प्रसिद्ध हुआ । इसी प्रकार प्राणियों के आगामी भव के शुभ-अशुभ आयुष्य के बंध करने का कारण होने से यह अष्टमी
और चैत्रीपूर्णिमा दोनों इस तीर्थभूमि पर पर्व के रूप में प्रख्यात हुए । इन दोनों पर्यों के अवसर पर इस तीर्थ में भक्ति से यदि अल्प दान भी दिया हो तो वह सारे क्षेत्र में बोये हुए बीजों की तरह प्रचुर फल प्रदान करता है । यदि अष्टमीपर्व पर दान, शील और आराधना हो तो वह, इस तीर्थ पर जिनभक्ति के समान, उन प्राणियों के अष्टकों को भेद डालता है ।
चैत्रीपूर्णिमा के दिन पाँच करोड मुनियों के साथ पुंडरीकमुनि सिद्ध हुए, इससे जगत में तब से चैत्रीपूर्णिमा का पर्व प्रसिद्ध हुआ, और यह तीर्थ भी पुंडरीक गिरिराज के नाम से प्रख्यात हुआ । इस चैत्रीपूर्णिमा के पवित्र दिन जो संघसहित यात्रा करके पुंडरीकगिरि पर रहे पुंडरीक गणधर की पूजा करे, वह लोकोत्तर स्थिति प्राप्त करता है । नंदीश्वरादि द्वीपों में रहे शाश्वत प्रभुओं के पूजन से जितना पुण्य होता है, उससे अधिक पुण्य शत्रुजय गिरिराज पर चैत्रीपूर्णिमा पर पूजन करने से होता है । चारित्र,
त्रितीर्थी