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ऊपर के दिखावे मात्र से सुख प्रदान करने वाले इस पौद्गलिक पदार्थों के मोह से भ्रमित हुए अधम पुरुष नरकागार के कारणों में ही सदा प्रवर्तते है। यदि वैसा नहीं होता तो वैसे राज्य को पिताश्री ऋषभदेव भगवंत क्यों छोड़ते? इसलिए मैं भी आज उन पूज्य पिता के मार्ग का ही पथिक बनूं।' इस प्रकार मन में विचार कर वे महाविवेकी बाहुबलि पश्चाताप से अपने नेत्रों में से निकलते किंचित ऊष्ण अश्रुरूपी जल से पृथ्वी का सिंचन करते हुए अपने बड़े भाई भरत नरेश्वर से कहने लगे, "हे ज्येष्ठ बंधु भरत ! मैंने आपको राज्य के लिए बहुत खेद कराया है, तो अब आप मेरे उस दुश्चरित्र के लिए मुझे क्षमा करें। मैं पिताश्री के मार्ग का पथिक बनूँगा। मुझे अब राज्य संपत्ति की स्पृहा नहीं है।" ऐसे कहकर उसी उठी मुष्ठि से उन्होंने अपने केशों का लोचन किया।
इस प्रकार कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े हुए बाहुबलि को देखकर तथा अपने अघटित कार्यों से लज्जित हुए भरत चक्रवर्ती मानो पृथ्वी में धंस जाने की इच्छा करते हों, वैसे नीचा मुख किए बाहुबलि के सम्मुख खड़े रहे, और उनके नेत्रों में से आँसुओं का प्रवाह बहने लगा। अपने लघु बंधु को उन्होंने प्रणाम किया। 'लोभ और मत्सर से ग्रस्त हुए हैं, उनमें मैं मुख्य हूँ! और तुम दयालु और धर्मात्माओं में मुख्य हो! हे भ्राता! तुमने प्रथम तो मुझे युद्ध में जीत लिया और फिर व्रतरूपी शस्त्र से इन रागादि भावशत्रुओं को भी जीत लिया। इससे इस जगत में तुम से अधिक कोई बलवान वीर नहीं है।'
'हे भगवान्! सचमुच इस संसार में आप ही एक मात्र वीतराग हैं, अन्य कोई नहीं कि जो पुत्र पर भी लेशमात्र भी रागवान नहीं हुए, उस पर भी लेशमात्र भी ममता नहीं रखी।'
मार्ग में कायोत्सर्ग मुद्रा में रहे बाहुबलि के चरणों में प्रणाम कर भरत नरेश्वर विराट उत्सव से शोभित अयोध्यापुरी में आए। वहाँ सुर, असुर
शत्रुञ्जय तीर्थ