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और मनुष्यों के समूह द्वारा सेवित भरत राजा सुखकारी पिता के समान प्रजा का पालन करने लगे।
बाहुबलि राजर्षि बनकर, सर्व सावद्य कर्मों से रहित और सर्व प्राणियों के हितकारी बनकर, कर्मों को खपाने के लिए कायोत्सर्ग ध्यान में लीन थे। वहाँ निश्चल अंग वाले उन मुनिचन्द्र बाहुबलि को देखकर देवता लोग तर्क करते थे कि 'क्या यह ध्यानाधिरूढ रत्नमूर्ति होगी या पृथ्वी में से काटी हुई प्रतिमा होगी? अथवा आकाश में से अवतरित हुए कोई देवता होंगे।' राग और द्वेष को जीतने वाले और सब पर समान भाव रखने वाले इन मुनिपति ने हृदय कमल में श्री जिनेश्वर भगवान् का ध्यान धर कर, मत्सर बुद्धि का त्याग कर, एक वर्ष तक कायोत्सर्ग में रहकर, अपने घाती कर्मों को दग्ध प्राय:कर दिया था। अहंकार का भाव स्वतः ही समाप्त हो गया। 'जो पुरुष गजेन्द्र पर चढ़े हों उन्हें कैसे ज्ञान प्राप्त होगा? अतः अपने वैरी के समान उस गजेन्द्र का तुम त्याग करो।'
___ 'मेरे से संयम में बड़े उन अपने छोटे बंधुओं को नमस्कार करता हूँ। मान धरने से पुण्य, कीर्ति, यश, लक्ष्मी, स्वर्ण और अद्भुत साम्राज्य, सभी सर्वनाश पाते हैं और दुर्गति को प्राप्त होते हैं।' तत्पश्चात् देवी द्वारा व्रती का वेष प्राप्त कर उत्तम ज्ञान से शुद्धत्व के ज्ञाता, वे बाहुबलि राजर्षि प्रभु के पास जाकर, प्रभु की प्रदक्षिणा करके, केवलज्ञानियों की पार्षदा में बैठ गए।
इस प्रकार बलवानों में भी बलवान ऐसे बाहुबलि राजर्षि ने एक साथ भरत चक्रवर्ती पर और कर्मों के समूह पर विजय प्राप्त कर, अंत में अपने मान को भी जीत लिया।
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त्रितीर्थी