________________
ना
बाहुबलि स्नान-विलेपन करके, शुभ्र वस्त्र धारण करके श्री जिनेश्वर देव की पूजा करने गए। श्री आदिनाथ प्रभु की प्रतिमा का जल से अभिषेक करके विविध अक्षत तथा पुष्पों से उन्होंने उस प्रतिमा की पूजा करके उसकी स्तुति की। तदनन्तर उस देव मंदिर में से बाहर निकल बाहुबलि ने वज्रमय बख्तर और शिरस्त्राण धारण किए, इससे वे उत्साह से दुगने हुए हों ऐसे दिखने लगे।
__ भरत नरेश्वर भी प्रात:काल स्नान कर, धुले हुए शुद्ध वस्त्र पहनकर देवालय में गए। संपूर्ण भक्तिवाले भरतराजा ने धूप जलाकर प्रभु की स्तुति की। फिर चैत्य में से निकलकर वज्र से भी अभेद्य, ऐसा जगज्जय नामक कवच और उत्तम श्रृंगाररूपी शिरस्त्राण धारण किया तथा लोहमय बाणों से भरे पूर्णजय और पराजय नामके दो अक्षय तरकश पीठ पर धारण किए।
युद्ध का प्रारम्भ हुआ। एक दूसरे पर शस्त्र का प्रयोग किया गया। जाज्वल्यमान चक्र बाहुबलि के निकट आया और उनकी प्रदक्षिणा करके वापिस चक्रवर्ती के हाथ में लौट गया, क्योंकि चक्रवर्ती का चक्र उनके समान गोत्रीय कुटुम्बी पर प्रभावी नहीं होता, तब फिर तद्भवसिद्धि प्राप्त करने वाले बाहुबलि जैसे महापुरुष पर तो कैसे प्रभावी हो सकता है। इस घटना से बाहुबलि ने अत्यन्त क्रोधित होकर सोचा, इस चक्र को, इसके एक हजार यक्षों को और यह अन्याय करने वाले इसके अधिपति भरत को अब तो एक मुष्टि के प्रहार से चूर-चूर कर डालूं! यह सोचकर कल्पांत काल में छोड़े गए इंद्र के वज्र जैसी क्रूर मुष्टि उठाकर बाहुबलि अपने भाई भरत की ओर दौड़े। परन्तु समुद्र जैसे मर्यादा भूमि में आकर अटक जाता है, वैसे ही बाहुबलि अपने बड़े भाई चक्रवर्ती भरत नरेश्वर के पास आकर अटक गए। गुरूजन को मारकर और लघुजन को छल से पृथक कर यदि महान राज्य सुख मिले, ऐसा हो तो भी मुझे उसे ग्रहण नहीं ही करना है।
36
त्रितीर्थी