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"- दसवाँ उद्धार श्री शान्तिनाथ भगवान के पुत्र चक्रायुध ने कराया।
ग्यारहवाँ उद्धार श्री मुनिसुव्रत स्वामी के तीर्थ में रामचन्द्रजी तथा लक्ष्मणजी ने कराया। बारहवाँ उद्धार श्री नेमिनाथ भगवान के शासन में पाण्डवों ने कराया। इस प्रकार मुख्य बारह उद्धार चौथे आरे में हुए। बीचबीच में छोटे-छोटे अनेक उद्धार होते रहे हैं। तत्पश्चात् पाँचवे आरे में निम्नलिखित चार बड़े उद्धार हुए हैं। तेरहवाँ उद्धार श्रुतज्ञानी वज्रस्वामी के उपदेश से विक्रम संवत् १०८
(५१ ईस्वी) में जावडशा ने कराया। - चौदहवाँ उद्धार विक्रम संवत् १२१३ (११५६ ई.) में श्री कुमारपाल
राजा के समय में श्रीमाली जाति के मंत्री श्री बाहड़ ने कराया। पन्द्रहवाँ उद्धार संवत् १३७१ (१३१४ ई.) में श्री समराशा
ओसवाल ने कराया। सोलहवाँ उद्धार संवत् १५८७ (१५३० ई.) में श्री करमाशा
ओसवाल ने कराया। उनके द्वारा प्रतिष्ठित मूलनायकजी की प्रतिमा इस समय विद्यमान है और उनका प्रभाव सर्वत्र व्याप्त है। सत्तरहवाँ उद्धार - पाँचवे आरे के अन्त में श्री दुप्पसहसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से राजा विमलवाहन करायेंगे और वह इस अव सर्पिणी का अन्तिम उद्धार होगा।
त्रितीर्थी