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शत्रुजय तीर्थ की महिमा संबंधी कथाएँ
१. कोढ़ी ब्राह्मण की कथा अनेक देवताओं से सेवित श्री युगादि प्रभु अभी श्रीप्रभ उद्यान में पधारे। एक दिन अनंत नामक नागकुमार देव के साथ धरणेंद्र वहाँ आया
और जगद्गुरु को नमन करके उसने प्रश्न किया, 'भगवान् ! सब देवों में इस अनंत की देह की कांति इतनी अधिक क्यों है?' यह प्रश्न सुनकर प्रभुश्री ने फरमाया, 'आज से पूर्व चौथे भव में अनंत देव आभीर जाति में उत्पन्न हुआ था और उस अवस्था में मानो उत्कृष्ट पाप का पोषण करने के लिए जन्मा हो, वैसे वह निरंतर रूप से मुनियों को दु:ख देता था। वहाँ से मृत्यु प्राप्त कर नरक में विविध वेदनाएं भोगकर वह सुग्राम नामक गाँव में कोढ रोग से पीड़ित एक ब्राह्मण बना। एक बार उसने मेरे सुव्रत नामक शिष्य मुनि से अपनी देह में कोढ होने का कारण पूछा। तब उन्होंने कहा कि पूर्व भव में मुनिराजों को पीड़ा देने से तू कोढी हुआ है। उत्तम पुरुषों के लिए मुनि महात्मा आराधना करने योग्य हैं। कभी भी मुनिराज की विराधना करना उचित नहीं होता। मुनि तो क्षमावान होने के कारण क्षमा करदें तथापि उनको दुःख देने वाले को तो उस पाप की परंपरा भोगनी ही पड़ती है। मुनि का सन्मान करना स्वर्गादि उत्तम गति प्रदान करता है
और अपमान करने से मूल में लगी अग्नि के समान वह अनंत कुलों को जला डालता है। सुव्रत मुनि के इस कथन के बाद उस ब्राह्मण ने अपने कोढ रोग के नाश का उपाय पूछा। तब मुनि ने कहा- तू भावनापूर्वक शखंजय गिरि की सेवा कर। उस तीर्थ में राग-द्वेष रहित और समतारस युक्त
शत्रुञ्जय तीर्थ
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