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पूजन किया । तब हृदय में हर्ष प्राप्त कर नागपति ने उस राजकुमार को कहा, "हे भगीरथ ! मैंने जह्नु कुमार आदि को खाई खोदने के कार्य से मना किया, तो भी वे माने नहीं, और उस कार्य से संपूर्ण नागलोक के नाश के भय से मैंने उनको जला कर भस्म किया है। उन्होंने पूर्व में वैसा कर्म उपार्जित किया था । तो अब मेरी आज्ञा से, हे भगीरथ ! तुम उनकी उत्तरदेह क्रिया करो, और पृथ्वी को डुबाने वाली इस गंगा नदी को मुख्य प्रवाह में ले जाओ।" नाग राजा प्रीतिपूर्वक उसे इस प्रकार निर्देश दे कर अपने स्थान को चले गए। फिर भगीरथ ने अपने पूर्वजों की वह भस्म गंगा में डाली, तब से जगत में पितृक्रिया में यह व्यवहार प्रवर्तित हुआ है। पितरों की उत्तरक्रिया करके भगीरथ, कुमार्ग पर चलती नारी को मार्ग पर लावे वैसे, गंगा के उन्मार्गी प्रवाह को दंडरत्न से मुख्य मार्ग में लाया। वहाँ लोगों के मुख से सगर राजा को शत्रुजय तीर्थ गया हुआ जान कर, वह वहाँ से उसी तरफ चला और उत्तरोत्तर प्रयाण कर के गिरिराज पर आ पहुंचा । उस समय वहाँ रायण वृक्ष के नीचे इन्द्र और चक्रवर्ती के चरणों में नमन करते उस भगीरथ का उन दोनों ने आलिंगन किया। फिर हर्षित हो उन्होंने भरतराजा के जैसे उस तीर्थ में भक्ति से श्री आदिनाथ प्रभु का स्नात्रपूजादि महोत्सव किया । मरुदेवा, तथा बाहुबलि शिखर पर, और तालध्वज, कादंब, हस्तिसेन इत्यादि सब शृंगों पर भी उन्होंने जिनपूजा की। गुरुमहाराज के कहने से उन्होंने वहाँ मुनिभक्ति, अन्नदान, आरती, महाध्वज, तथा इन्द्रोत्सव (इन्द्रपूजा करके छत्र व चामरों को रखना) और रथ, पृथ्वी तथा अश्वों का दान किया । फिर भरत के बनवाए प्रासादों को देख इन्द्र ने स्नेहपूर्वक धर्म के सागर समान सगर राजा से कहा, "हे चक्रवर्ती ! इस शाश्वत तीर्थ में तुम्हारे पूर्वज भरतराजा का यह पुण्यवर्द्धन कर्तव्य देखो, भविष्य में काल के माहात्म्य से विवेकरहित, अधर्मी, अति लोभांध, तीर्थ का अनादर करने वाले, और मलिन हृदय वाले लोग मणि, रत्न, चाँदी और
त्रितीर्थी