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सुवर्ण के लोभ से इस प्रासाद की अथवा प्रतिमा की कदापि आशातना करेंगे, इसलिए जळु के जैसे तुम भी इस प्रासाद की रक्षा का कुछ उपाय करो । तीनों जगत में तुम्हारे जैसा कोई समर्थ पुरुष इस काल में नहीं है।" यह सुन कर सगर राजा चित्त में विचार करने लगे कि, 'मेरे पुत्र सागर के साथ मिली गंगा नदी लाए; तो मैं उनका पिता हो कर यदि सागर को लाऊं तो उनसे विशेष होऊ, नहीं तो मानहीन हो जाऊं ।' ऐसे आवेश के वश में इन्द्र के सहेतुक वचन याद कर के सगर राजा क्षणभर में यक्षों द्वारा सागर को वहाँ लाए । उस समय लवण समुद्र का अधिष्ठाता देव अधर में अंजलि जोड कर चक्रवर्ती को प्रणाम करके साम वचन से बोला, “हे चक्रवर्ती ! कहो मैं क्या करूं ?" उस समय अवधिज्ञान से जिसने जिनवचन स्मरण किया है, ऐसे इन्द्र ने आकुल वाणी बोलते हुए कहा, "हे चक्री ! विराम लो, विश्राम करो । जैसे सूर्य बिना दिवस, पुत्र बिना कुल, जीव बिना देह, दीपक बिना गृह, विद्या बिना मनुष्य, चक्षु बिना मुख, छाया बिना वृक्ष, दया बिना धर्म, धर्म बिना जीव और जल बिना जगत्; वैसे ही इस तीर्थ बिना समस्त भूतसृष्टि निष्फल है। अष्टापद पर्वत का मार्ग रुंध गया, अब यही तीर्थ प्राणियों को तारने वाला है। किन्तु यदि समुद्र के जल से इस तीर्थ का मार्ग भी रुंध गया, तो फिर इस पृथ्वी पर दूसरा कोई तीर्थ प्राणियों को तारने वाला मेरे देखने में नहीं आता । जब तीर्थकर देव तथा जैनधर्म के श्रेष्ठ आगम पृथ्वी पर नहीं रहेंगे, तब मात्र यह सिद्धगिरि ही लोगों के मनोरथ को सफल करने वाला होगा ।" इन्द्र की ऐसी वाणी सुन कर चक्रवर्ती ने लवणदेव से कहा, "देव ! मात्र निशानी के लिए समुद्र यहाँ से थोडी दूर रहे और तुम स्वस्थान को जाओ।" इस प्रकार उसे विदा करने के बाद जिसका मन प्रसन्न हुआ है, ऐसे सगर राजा ने इन्द्र से मलिन अध्यवसाय वाले पुरुषों से इस तीर्थ की रक्षा का उपाय पूछा । इन्द्र ने कहा, "हे राजा ! प्रभु की ये रत्नमणिमय
शत्रुञ्जय तीर्थ