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यह शरीर जो क्षणिक है 'पर' है, तथा 'स्व' है आत्मा, जो अजर अमर है। चेतन स्वरूप जीव ही सुख-दुख की अनुभूति करता है -
• पर के कारण करी है धारण,
पापों की सिर पर गठरिया। • मैं हूं कारण उपादाने, निमित्त कारण तुम्हें जानूं • सुखी मैं हूं, दुखी मैं हूं, मुझे संशय सताता है,
अगर चेतन नहीं होवे, कहो शक किसको आता है। * मुझ में भी शक्ति प्रभु तुमरी,
जो पद तुमारा सो पद होवे। विजयवल्लभ की कविता के अनुप्रास, सजावट, छटा, बुलंदी और गहराई को दर्शाता सुमतिनाथ प्रभु का यह स्तवन -
पंच पंच को त्याग के, कियो पंच से राग, पंचेन्द्रिय निग्रह करी, पंच-भिदा धुन लाग, पंच दूर करी पंच का, दिया शुद्ध उपदेश, पंच पदे धुरी राजता, जैसे ज्योति दिनेश। और अपने अगले ही स्तवन में, शायर इसका उत्तर भी देते लगते हैं - • सुमतिनाथ पंचम प्रभु भजके, पंचाश्रव को तजता रे,
संवर पांच को धारीमार्ग, पंचम गति को सजता रे, भावे पंचम प्रभु को नम के, पांच प्रमाद को भमता रे, पंच आचार को विधि से धारी, पंच आचार में रमता रे। नाम अनुपम, काम अनुपम, धाम अनुपम धारी,
अनुपम प्रभु सेवा सारी, अनुपम फल शिव दातारी, * आणा तप जप, संयम आणा, आणा समकित जानी,
आणा में ध्यानी ज्ञानी, करनी शुभ आणा धारी। द्रव्य-गुण पर्याय
तत्त्वार्थ सूत्र में आचार्य उमास्वातिने जैन दर्शन के 'त्पादव्यय-ध्रौव्य युक्तं सत्' के नियम का उल्लेख किया है। यह निर्विवाद सत्य है कि यह जगत् द्रव्यों का समूह है, अर्थात् सत् वह है जिस में उत्पाद (नए पर्याय की उत्पत्ति), व्यय (पुराने पर्याय का नाश) तथा ध्रुवता (स्वभाव की स्थिरता) है। आधुनिक विज्ञान में भी एटम के न्यूट्रोन-प्रोटोन इसी क्रम में नो वनते, खत्म होते और स्थिरता कायम रखते है। विजयवल्लभ के अनुसार भी -
૭૬ + ૧૯ભી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો