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________________ ... खुद को रहम की खातिर किया कुरबां तुमसा और किसी का जिगर न हुआ विजयवल्लभसूरिजीने अपने काव्य और प्रवचनों में समन्वय को अहिंसा की प्राणवायु दी और मानव को शांति का जीवन संगीत दिया। राम-रहीम, अल्लाह-ईश्वर, जिनेश्वर-शिवशंकर की एकता को दर्शाया। भक्ति काल के वैभव को अपने काव्य में अंकित करके मानव को अपने अंतर का मधुर मौन संगीत सुनने का अवसर दिया। उनके काव्य में कबीर के ज्ञान, सुरदास के वात्सल्य, तुलसी का मंगल, मीरा का प्रेम, आनंदघन व चिदानंद की आत्म-रमणता, यशोविजय व देवचंद की दास्यानुभूति तथा विजयानंद की तात्त्विक साख्य-भक्ति का सहज प्रसार नजर आता है। ___ आचार्य विजयवल्लभ कविता नहीं करते थे, अपितु कविता की रसधारा उन के अंतर से सहज ही प्रवाहित होती थी। एक मौन मधुर कलनाद उन के अंतर में हमेशा गूंजता था, अतः कविता की रसवती गंगा सहज ही फूटती थी। सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यग् चरित्र की तुलना वैश्णवदर्शन के ज्ञान, भक्ति और कर्म से करके विजयवल्लभ ने सिद्धान्त और व्यवहार से समन्वित जीवन पर बल दिया। मुनि सुव्रतस्वामी स्तवन में दर्शन से नयन, वंदन से तन, स्तवन से वाणी और ध्यान से हृदय सुन्दर और स्वच्छ बनते हैं - * दर्शन नयन सफल हुए रे, वंदन कर तनु सार __ स्तवन से वाणी सफल रे, ध्यान हृदय मनोहार। * श्रद्धा मूल क्रिया कही, ज्ञान मूल है तास, पावे शिव सुख आतमा, इस से अविचल वास। * समकित दर्शन है मुक्ति का निदान। आत्मा अजर अमर है। गीता के इस ज्ञान को विजयवल्लभ ने भी खूब अनुभव किया है - सत् चित् आनंद रूप स्वरूपी, सिद्ध अचल पद धार, जल अग्नि गाले नहीं जाले, छेदे नहीं हथियार। "हम तुम सरिखा नाथ जी' कहकर, ध्याता, ध्येय और ध्यान के लिए कहा - 'त्रिपुटी जब होवे, तभी तुम हम समा जानु। करूणा, कृपा, दया भगवान का नित्य गुण है। सगुण और निर्गुण ईश्वर तात्त्विक दृष्टि से एक हैं। सगुण अपन मूल रूप में निर्गुण ही होता है। * प्रभु दर्शन निज आतम दर्शन। * तू अज अचल ईश विभु चिदघन, रंग रूप विन तू कहिये, अज अचल निराशी शिव शंकर, अध हर जग महिये॥ आचार्यश्री विजयवल्लभसूरि व्यक्तित्व-कवि-काव्य + ७५
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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