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* द्रव्यार्थिक से जानिये, नित्य पदारथ जीव,
नाशोत्पति न होत है, ध्रुव रूपे हि सदीव' * उत्पाद व्यय से जानिये, अनित्य यह संसार
ध्रौव्य अंश माने बिना, नाश होय व्यवहार॥ * उत्पत्ति स्थिति नाश को, जाने जिन समकाल॥ भगवान की माता के रूप में उन्होंने भारत मां के दर्शन किये थे। 'प्रभु माता तू जगत की माता, जग दीपक भी धरनारी।' इसी तरह अपने गुरु श्री विजयानन्द सूरि के लिए उन्होंने कहा - 'गुरु शशि सम निर्मल काया, तरणि से तेज सवाया।' एक ओर जहां कुगुरु की फांस अत्यंत दुःखदायी हैं, क्योंकि वह अपने स्वार्थ के लिए समाज और राष्ट्र में अशांति पैदा करते हैं, वहीं सदगुरु के लिए उन्होंने कहा -
'भूरख शिष्य को पंडित करता, जन्म जन्म की पीडा हरता'। तीर्थ दर्शन हमारी चेतना जगाने के लिए महत्त्वपूर्ण है, जहां हम अलौ भाव-भूमि के प्रेम-परिमल में पहुंच जाते हैं -
• तीर्थयात्रा मन मल धोवा, निर्मल नीर झरो,
भूवि जन अर्चन तीर्थ करो। • गिरि राज दर्श पावे, जग पुण्यवंत प्राणी
• साचा केसरिया कर तुम ने, मोह महा मल्ल वारिया रे॥ तीर्थ की परिभाषा समझाते हुओ बोले 'तरना होवे जीव का तीर्थ कहिए तेह'। सभी तीर्थो को वंदन करते हुए कहा - 'तीर्थ नहीं जग एक है, मैं तो एक ही ए। तीर्थयात्रा भी जरूरी है - जो दिन जावे भवि का तीर्थ में, उत्तम वो मानी।'
जीवन के चरम ध्येय के रूप में उन्होंने सिद्ध पद की कामना की थी, जहां - 'केवल आतम रमणता, पुद्गल रमण वियोग' हो। उनके अनुसार सिद्ध पद - मोक्ष की स्थिति भी इस प्रकार है -
* सिद्ध अनंते हो गओ, होंगे और अनंत,
स्थान न रोके ज्योति में, ज्योति अंक मिलंत, * मित्र नहीं वैरी नहीं, नहीं संयोग वियोग,
भूख नहीं तरषा नहीं, नहीं विषय रस भोग, * शब्द रूप रसगंध नहीं, नहीं फरस नहीं वेद,
गुरु चेला नहीं मोक्ष में, नहीं वृद्ध लघु खेद॥ मानव जीवन भगवान का स्वच्छ और पवित्र मंदिर है, योग, समाधि, अनुष्ठान करते हुए, सिद्धशिला अर्थात् मोक्ष तक पहुंचने का रास्ता दिखाया है -
आचार्यश्री विजयवल्लभसूरि व्यक्तित्व-कवि-काव्य + ७७