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________________ जैन कथा कोष ७६ से कही। विजय को बुलाकर पूछा तो उसने हलवाई का पता बता दिया । कृतपुण्य अपने पुत्र विजय को साथ लेकर हलवाई के पास गया और उससे मणि माँगी तो उसने साफ इन्कार कर दिया । कृतपुण्य ने हलवाई की शिकायत अभय से कर दी । अभय समझ गया कि मणि का वास्तविक स्वामी कृतपुण्य ही है। उसने हलवाई को प्राणदण्ड देने की धमकी दी तो वह सबकुछ उगल गया, उसने सच-सच बता दिया । कृतपुण्य को मणि मिली ही, साथ ही वह राज-जामाता भी बन गया। अब कृतपुण्य ने चम्पा सेठानी की चारों पुत्रवधुओं को उनकी सास के शासन से मुक्त कराने का विचार किया । उसने अपनी पत्नियों तथा अभयकुमार को सब कुछ साफ-साफ बता दिया। साथ ही यह भी कह दिया कि 'मैं उस भवन के बारे में कुछ भी नहीं जानता कि वह राजगृह में ही है या कहीं और; लेकिन उन स्त्रियों का उद्धार अवश्य करना चाहता हूँ ।' इधर देवदत्ता को जैसे ही कृतपुण्य का समाचार मिला, वह अपनी माता सुलोचना से विद्रोह करके कृतपुण्य के पास आ गई । कृतपुण्य ने उसे एक अलग भवन में रख दिया। इतने समय में अभयकुमार ने अपनी योजना साकार करने के लिए एक यक्ष मन्दिर बनवाया और नगर में घोषणा करा दी कि प्रत्येक स्त्री-पुरुष यक्ष की पूजा करेगा, अन्यथा नगर में महामारी फैल जाएगी। इसलिए राजाज्ञा है कि प्रत्येक नर-नारी यक्ष का पूजन अवश्य करे। निश्चित दिन यक्ष- मन्दिर में नगर के सभी नर-नारी यक्ष-पूजन हेतु आये । कृतपुण्य और कुछ राजसेवक गुप्त रूप से उन्हें देख रहे थे। जैसे ही विधवा सेठानी चम्पा अपनी चारों पुत्रवधुओं और पौत्रों के साथ यक्षायतन में आयी कि कृतपुण्य ने उन्हें पहचान लिया। उसने राजसेवकों को सब कुछ समझा दिया । गुप्तचर सेठानी के पीछे-पीछे गये और उसके भवन को देख आये । दूसरे दिन कृतपुण्य चम्पा सेठानी के भवन में पहुँच गया। राज-जामाता को रोकने का साहस चम्पा सेठानी में नहीं था । कृतपुण्य उन चारों स्त्रियों तथा अपने सोलहों पुत्रों को अपने साथ ले आया । अब सातों पत्नियों के साथ उसके दिन बड़े सुख से बीत रहे थे । उसका पूर्ण भाग्योदय हो चुका था । सुख- सामग्री होते हुए भी कृतपुण्य सदाचारी, धर्मनिष्ठ और आचरणशील पुरुष था ।
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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