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जैन कथा कोष ७१
का होगा तब इसे जो रखेगा वह निश्चित ही राजा होगा।' यह बात करकण्डु ने भी सुनी तथा पास खड़े ही एक ब्राह्मण के बालक ने भी। मौका देखकर वह ब्राह्मण का बालक उसे उखाड़कर ले जाने लगा तब करकण्डु ने भी आकर उससे छीनना चाहा। दोनों में विवाद बढ़ा । आखिर पंचों के पास यह विवाद पहुँचा। पंचों ने झगड़े का कारण जानना चाहा। 'करकण्डु' ने सारी बात साफ-साफ सुना दी। पंचों ने भी वह बाँस करकण्डु को दिलाते हुए कहा—'तू राजा बने तो एक गाँव इस ब्राह्मण के बालक को अवश्य दे देना।' करकण्डु ने साधिकार कहा-'हाँ, अवश्य दूंगा।'
बाँस के टुकड़े का विवाद तो नामाप्त हो गया। परन्तु इस निर्णय को समूची ब्राह्मण जाति ने अपना घोर अपमान समझा । बदला लेने के लिए करकण्डु को मारने का षड़यन्त्र रचा जाने लगा। करकण्डु के पिता को इस बात की भनक लग गई। अतः वह अपनी पत्नी और पुत्र को लेकर रातों-रात वहाँ से भाग खड़ा हुआ। चलते-चलते कलिंग देश की राजधानी 'कंचनपुर' में पहुँचा।
संयोगवश वहाँ नि:संतान राजा की मृत्यु हो गई थी। नया राजा चुनने के लिए मंत्रियों और प्रजा ने हथिनी, अश्व आदि सजाए और उनके पीछे-पीछे चलने लगे। हथिनी करकण्डु के पास आयी और उसके गले में पाँचवर्णी पुष्पों की माला डाल दी। उसी समय अश्व भी हिनहिना उठा । 'करकण्डु' को राजा घोषित करवा दिया गया। कइयों ने इसे चाण्डाल समझकर आपत्ति की, तब करकण्डु का क्रोध भड़क उठा। वह हाथ में राजदण्ड घुमाता हुआ बोला-'मुझे यह राजदण्ड भिक्षा में नहीं मिला। इसकी सुरक्षा मैं अपने भुजदण्डों से करूँगा, सबने उसे प्रतापी राजा स्वीकार किया। __उस ब्राह्मण को जब मालूम पड़ गया कि करकण्डु कलिंग का राजा बन गया है तो उसने उसकी राजसभा में आकर एक गाँव की याचना करते हुए कहा-'मैं 'चम्पानगर' के पास के जिस गाँव में अब तक रहता आया हूँ, वही गाँव मुझे दीजिए।'
राजा भी स्तम्भित रह गया, वगोंकि वह जानता था कि वह गाँव महाराज दधिवाहन का है। दूसरे का गाँव किसी को कैसे दिया जाये? इसीलिए करकण्डु ने दधिवाहन के पास अपना दूत भेजकर कहलाया कि इस ब्राह्मण को मन इच्छित गाँव दे दीजिए और उसके बदले में उतनी ही भूमि अथवा उससे दुगुनी भूमि आप कलिंग देश में से ले लीजिए।