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जैन कथा कोष ६६ ४४. करकंडु (प्रत्येकबुद्ध) अंगदेश की राजनगरी चंपापुरी का स्वामी था 'दधिवाहन'। उसकी महारानी का नाम था 'पदमावती' जो इतिहास-प्रसिद्ध एवं द्वादशव्रती श्रावक महाराज 'चेटक' की पुत्री थी। 'पद्मावती' को धार्मिक संस्कार विरासत में ही मिले थे। 'पद्मावती' गर्भवती हुई। गर्भयोग से इसके मन में दोहद पैदा हुआ कि मैं महाराज की वेशभूषा में हाथी पर सवार होकर बैलूं और महाराज मेरे सिर पर छत्र लिये मेरे पीछे बैठें, मैं इस प्रकार वन-क्रीड़ा करूं। दोहद की बात किसी को कहने जैसी नहीं थी, अतः मन-ही-मन घुटन लिये रानी शरीर से कृश होने लगी। उदासी का कारण अत्याग्रहपूर्वक राजा के पूछे जाने पर रानी ने सारी बात एक ही साँस में कह डाली। राजा ने धैर्य बँधाते हुए कहा-'इसमें सकुचाने और छिपाने की क्या बात है? यह तो बहुत ही सरल है।'
तत्क्षण राजा ने वैसी ही व्यवस्था की। महाराज के वेश में महारानी हाथी पर सवार हुई और महाराज पीछे छत्र लिये बैठे। गजराज वन की ओर चला। वह वन के समीप पहुँचा ही था कि इतने में अकस्मात् धुआंधार वर्षा और आँधी का आक्रमण हो उठा। वर्षा के योग से हाथी में मतवालापन चढ़ आया। वह उन्मत्त हुआ दौड़ने लगा। राजा-रानी दोनों ही घबरा गये। मृत्यु निकट-सी दीखने लगी।
भयाकुल राजा ने रानी से कहा—'अब तो बचाव का एक ही रास्ता है, सामने जो वृक्ष दिखाई दे रहा है, जैसे ही हाथी उसके समीप पहुँचे, हम उस वृक्ष की शाखा को पकड़कर इस मौत के मुँह से बचें।' दोनों शाखा को पकड़ने के लिए तैयार हो गये। राजा ने शाखा पकड़ ली, पर रानी के हाथ शाखा नहीं लगी और हाथी आगे निकल आया। राजा वृक्ष से शनैः-शनैः नीचे उतरा पर रानी को न देखकर शोकाकुल हो उठा। मन-ही-मन रानी के विरह को समेटे वापस 'चम्पापुरी' चला आया।
उधर हाथी जब दौड़ते-दौड़ते थक गया और व्याकुल हो उठा, तब एक सरोवर में पानी के लिए घुसा। रानी ने मौका देखकर सरोवर में छलाँग लगा दी और तैरकर दूसरे किनारे आ पहुँची। उस निर्जन वन में अब धैर्य और धर्म के अतिरिक्त उसका कौन सहायक हो सकता था? साहस बटोरे रानी कुछ ही दूर आगे बढ़ी कि एक वृद्ध तापस मिला। उसे जब पता चला कि वह रानी पद्मावती है, महाराज चेटक की पुत्री है तो उसने धैर्य बँधाया। अपने आश्रम