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________________ ६४ जैन कथा कोष ही न था, इसलिए जनता को आहार-दान देने का कभी अवसर ही न आया था। अतः इन्हें आहार न मिल रहा था। आहार न मिलने से कच्छ, महाकच्छ आदि अनेक मुनि भूख से व्याकुल हो संयम-पथ छोड़कर कन्द-मूल आदि से अपना काम चलाने लगे। __ प्रभु को बारह महीने बाद वैशाख सुदी ३ के दिन 'श्रेयांसकुमार' के हाथ से भिक्षा मिली। एक सौ आठ इक्षु रस के घड़ों से वर्षी तप का प्रभु का पारणा हुआ। श्रेयांसकुमार को जाति-स्मृति से भिक्षा-विधि का ज्ञान हुआ। लोगों ने भी तब से ही भिक्षा-विधि को जाना। यों दान-धर्म की प्रवृत्ति हुई। एक हजार वर्ष बाद प्रभु को पुरिमताल नगर में केवलज्ञान प्राप्त हुआ। श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना इस युग में प्रथम बार हुई और ऋषभदेव आदि तीर्थंकर कहलाये। उनके पुंडरीक आदि ८४ गणधर थे। ____ अन्त में एक लाख पूर्व वर्ष तक कैवल्यावस्था में धर्मोपदेश देकर छः दिन के अनशन में दस हजार साधुओं के साथ माघ बदी १३ को अष्टापद' पर्वत पर मोक्ष पधारे। धर्म-परिवार गणधर ८४ - बादलब्धिधारी १२,६५० केवली साधु २०,००० वैक्रियलब्धिधारी २०,६०० केवली साध्वी ४०,००० साधु ८४,००० मनःपर्यवज्ञानी १२,६५० ... साध्वी ३,००,००० अवधिज्ञानी ६,००० श्रावक ३,०५,००० ४,७५० श्राविका ५,५४,००० -जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति -त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व १ पूर्वधर १. यह स्थान हिमालय पर्वत पर कैलाश नामक पहाड़ी के पास है। इस समय यह लुप्त हो चुका है।
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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