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________________ जैन कथा कोष ६३ पहले भिक्षु, यहाँ ऋषभदेव का जन्म हुआ। ऋषभदेव इस युग के पहले राजा, पहले मुनि, पहले केवलज्ञानी तथा पहले तीर्थंकर बने । उस समय युगल पुत्र-पुत्री ( युग्म) पैदा होते थे । अतः ऋषभदेव के साथ एक कन्या भी उत्पन्न हुई थी । उसका नाम 'सुमंगला' था। एक अन्य यौगलिक मर गया था, जिसकी बहन ऋषभदेव को उपलब्ध हो गई । उसका नाम 'सुनन्दा' था । 'ऋषभदेव' का इन दोनों के साथ विवाह कर दिया गया । सुमंगला के 'भरत' आदि ६६ पुत्र तथा 'ब्राह्मी' नाम की पुत्री थी । 'सुनन्दा' के पुत्र का नाम 'बाहुबली' तथा पुत्री का नाम 'सुन्दरी' था । उस समय कल्पवृक्षों का प्रभाव कम हो गया था । यौगलिकों को भी जीवन-यापन की सामग्री की उपलब्धि का अभाव होने लगा । अभाव में व्यक्ति का स्वभाव भी बदल जाया करता है । यौगलिकों में परस्पर बात-बात पर छीनाझपटी होने लगी । यों बदली हुई स्थिति को अनुशासित करने के लिए सबने नाभिराजा से ऋषभदेव को राज्याभिषेक करके अधिशास्ता बनाने को कहा । ऋषभ को राजा बना दिया गया । कुबेर ने भी एक बहुत विशाल और श्रीसम्पन्न नगर बसाया, जिसका नाम अयोध्या रखा गया । लोगों को नीतिवान बनाने के लिए ऋषभदेव ने विविध नीतियों का प्रवर्तन किया। राज्य-रक्षार्थ मन्त्री, सेनापति आदि पदों की स्थापना की । कल्पवृक्षों से भोज्य-प्राप्ति के अभाव में लोग कन्दमूल तथा कच्चा धान खाने लगे । कच्चा धान अपाच्य रहता, सुपाच्य नहीं बनता था, अतः अग्नि का आविष्कार करके भोजन को पकाने की विधि बताई। लोगों के चेहरे खिल उठे। असि (शस्त्रजीवी), मसि ( कलम- जीवी), कृषि (हल - जीवी) आदि विविध कर्मों का सूत्र किया। स्त्रियों के लिए चौंसठ तथा पुरुषों के लिए बहत्तर कलाओं का परिज्ञान आवश्यक बताया । ब्राह्मी के हाथ से ब्राह्मी आदि अठारह लिपियाँ तथा सुन्दरी के हथ से गणित विद्या का आविष्कार किया। यों जनता के हित के लिए विविध विद्याओं तथा विधियों का प्रवर्तन करके ६३ लाख पूर्व तक शासन किया । तदनन्तर संवेग प्राप्त करके वर्षीदान कर भरत को अयोध्या का राज्य पद प्रदान किया तथा अन्य ६६ पुत्रों को अन्य नगरों एवं देशों का राज्य प्रदान किया । इनमें बाहुबली को बहली प्रदेश का शासक बनाया। इस प्रकार पुत्रों को राज्य देकर आप चार हजार राजाओं के साथ संयमी बने । उस समय लोग भद्रतावश साधु को आहार देने की विधि से अनभिज्ञ थे । इसका कारण यह भी था कि ऋषभदेव पहले श्रमण थे। इनसे पहले कोई साधु
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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