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जैन कथा कोष ४३ ने एक दानशाला खोली और स्वयं दान देने लगी। उसका विचार था कि वे मुनि कभी तो दान लेने आयेंगे ही। बारह वर्ष बाद मुनिवर वहाँ आये । श्रीमती की समर्पण भावना तथा श्रेष्ठी एवं नगर-नरेश के अत्यधिक आग्रह के कारण मुनिजी फिसल गये और भोगावली कर्म की अवशेषता से उसके साथ पाणिग्रहण कर लिया तथा श्रीमती के प्रेमपाश में पूर्णतया बँध गए। एक पुत्र भी पैदा हुआ। पुत्र-प्राप्ति के बाद जब उन्होंने मुनि बनने को पुनः तैयार होने की भावना श्रीमती के सामने रखी तब श्रीमती कुन्द हो उठी। आर्द्रक पलंग पर लेटे थे और श्रीमती पास बैठा आँसू बहा रही थी। इतने में वह बालक भी वहाँ खेलता हुआ आया। साश्चर और साग्रह माता से उदासी का कारण पूछा। माता ने चरखा कातते हुए सारी बात बताते हुए कहा—'तेरे पिताश्री हमें छोड़कर जा रहे हैं।' बालक ने सहजता से सूत की पूनियाँ हाथ में लेकर कहा—'मैं इनसे पिताजी को बाँध दूंगा।' यों कहकर पूनि के पैरों में आँटे लगा दिये। आर्द्रक की आँख खुली तो देखा बालक पैरों को सूत से बाँध रहा है। यह देखकर आर्द्रक का दिल कुछ-कुछ पसीजा। अपने आँसू पोंछती हुई खिन्न बनी श्रीमती बोली-'मेरी ओर न सही, इस बच्चे की ओर तो देखिये, यह कितना अधीर हो रहा है।' आर्द्रक पसीज गये। लोह के बन्धन से मोहबन्धन सदा ही जटिल रहा है। आर्द्रक ने बालक के लंगाये आँटे गिने तो पूरे बारह थे, अत: बारह वर्ष फिर गृहस्थ आश्रम में रहने का निश्चय कर लिया। यों भोगावली कर्म पूरे होने पर फिर मुनिव्रत स्वीकार किया। उधर वे पाँच सौ सुभट भी मिल गये, जो राजा आर्द्रक ने आईककुमार की सुरक्षा के लिए नियुक्त किये थे। वे भी आर्द्रककुमार के चले जाने के बाद अपने नगर को नहीं लौटे थे और उसे खोजते हुए आर्यभूमि में चले आये थे तथा यहाँ लूटमार का धन्धा कर रहे थे। आर्द्रक मुनि ने प्रतिबोध देकर उन्हें जैन धर्म में दीक्षित कर लिया। उन्हें साथ लेकर आर्द्रक मुनि महावीर के पास जाने लगे। मार्ग में गोशालक तथा अन्य तापसों के साथ शास्त्रार्थ भी किया और विजयी बने । आर्द्रक मुनि राजगृह में आये। वहाँ अभयकुमार भी दर्शनार्थ आया। अपने मित्र की आपबीती सुनकर अभयकुमार को आश्चर्य, कौतुहल तथा हर्ष होना सहज ही था। आर्द्रक मुनि भगवान् महावीर के पास रहकर उत्कृष्ट संयम-तप की आराधना में लगे तथा मोक्ष-पद प्राप्त किया।
-सूत्रकृतांग २१६