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जैन कथा कोष
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महाराजा का नाम 'आर्द्रक' तथा महारानी का नाम 'आर्द्रका' था। उनके 'आर्द्रककुमार' नाम का एक पुत्र भी था। ये सब अनार्य थे, लेकिन किसी प्रसंगवश अनार्य राजा आर्द्रक की मैत्री राजगृही नरेश श्रेणिक से हो गई थी
और इसी कारण आर्द्रककुमार की भी राजगृह के महाराजा श्रेणिक के पुत्र अभयकुमार के साथ घनिष्ठ मैत्री थी। परस्पर मैत्री प्रवर्धमान तब ही रह सकती है, जब दोनों मित्रों में समय-समय पर वस्तुओं का आदान-प्रदान होता रहे, क्योंकि आदान-प्रदान से स्मृतियाँ ताजी होती हैं। ____ एक बार 'अभयकुमार' ने 'आर्द्रककुमार' के लिए कुछ वस्तुएँ भेंटस्वरूप भेजीं, जिसमें एक डिब्बा धर्मोकरणों का भी भेजा जिसे देखकर आर्द्रक अनार्य देश में रहता हुआ भी धर्म-साधना के प्रति सहज आकृष्ट रहे। आर्द्रक ने अभयकुमार के संकेतानुसार उस डिब्बे को एकान्त में खोला | उन धार्मिक उपकरणों को देखकर चिन्तन में डूब गया और इसी चिन्तन में सराबोर बने आर्द्रक को जातिस्मरणज्ञान की प्राप्ति हुई। जाति-स्मृति के बल पर उसने अपने पूर्वभव के मुनिरूप को देखा और अभयकुमार के पास जाने की आज्ञा अपने पिता आर्द्रक राजा से माँगी। परन्तु राजा ने आज्ञा नहीं दी। साथ ही यह कहीं लुके-छिपे न चला जाये, इसलिए पाँच सौ सुभटों को उसकी सुरक्षार्थ नियुक्त कर दिया। पर अवसर देख आर्द्रक उन सुभटों की आँखों से ओझल होकर आर्यभूमि में आ पहुँचा। वहाँ आकर जाति-स्मृति के बल पर साधुव्रत लेने को उद्यत हुआ। उस समय आकाश से देववाणी ने आर्द्रक से कहा-'तेरे अभी भोगावली कर्म अवशेष हैं, इसलिए अभी संयमी मत बनो।' आर्द्रक ने वैराग्य की तीव्रता में उस ओर ध्यान नहीं दिया और संयमी बन गया तथा साधना में लीन रहने लगा।
एक बार 'बसन्तपुर' नगर के उद्यान में आर्द्रक मुनि ध्यानस्थ थे। उधर अपनी सखियों सहित श्रेष्ठिकन्या श्रीमती वहाँ उपवन में आयी। अपने पति का चयन करने का खेल खेलती हुई वृक्ष समझकर मुनि के पैर पकड़कर बोली-'मेरे पति तो ये हैं।' इसी समय आकाश से देवों ने प्रभूत धन की वृष्टि की और देववाणी हुई–श्रीमती तुमने श्रेष्ठ वर पसंद किया है।' उपसर्ग होने की संभावना से मुनि अपना कायोत्सर्ग समाप्त करके वहाँ से अन्यत्र चले गये। पिता उसके साथ उद्यान आये और उस धन को ले गए। श्रीमती ने अपने पिता से सारी बात कही तथा मुनि के साथ विवाह करने का आग्रह करने लगी। परन्तु मुनिराज वहाँ से अन्यत्र चले गये थे। मुनि को खोजने के लिए श्रीमती