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________________ जैन कथा कोष ३५ शिष्य भी पास नहीं रहा, सभी धोखा दे गये । अब तो इन्हें मारकर इनके सारे जेवर हथिया लेने चाहिए, क्योंकि धन के बिना गृहस्थवास का स्वाद ही क्या ? अब मैं धन कमाकर पर्याप्त धन एकत्रित कर सकूं, ऐसी व्यापारिक क्षमता तथा शारीरिक क्षमता भी मुझमें अवशेष नहीं है । बस, फिर क्या था । उनके कंठ मोस, एक-एक करके सभी को मौत के घाट उतार दिया और उनके सारे आभूषण शीघ्र ही झोली में डाल लिये । अब लज्जा की परख करने के लिए देव ने श्रावकों का समूह गुरुजी के सामने ला खड़ा किया। चारों ओर वंदना की ध्वनि है, आहार- पानी की पुरजोर प्रार्थना है । गुरुजी मना कर रहे हैं। भोजन लें तो किसमें ? भाजनों में तो जेवर भरे पड़े हैं। फिर भी श्रावकों ने अत्याग्रह करके झोली को बलात् खोला तो पार में उन नामांकित जेवरों को देखकर हत्या का आरोप लगाने लगे । अपने पापों का भंडाफोड़ हो जाने पर गुरुजी को शर्मिन्दा होना ही था । आंखें मूंदें प्रस्तर की मूर्ति से बने खड़े हैं। मन में अन्यधिक ग्लानि है । जाएं भी तो कहां जाएं ! कहें भी तो क्या और किसे ? धरती में समाना चाहते हैं, पर पृथ्वी भी भला स्थान देने को कब तैयार हो ? उलझन भरी गुरुजी की सारी मन:स्थिति देखकर देव सामने प्रकट हुआ । अपना आत्मनिवेदन करते हुए, पुन: क्षमा-याचना की । अषाढ़भूति ने साश्चर्य कहा - वत्स ! तू कहां ? शिष्य देव ने कहागुरुजी ! आप कहां से कहां पहुंच गये ! अषाढ़भूति ने अपने अनास्था के कुहरे को बहुत ही शीघ्रता से हटाया । निःशल्य आत्मालोचन से विशुद्ध बने । संयम की उत्कृष्ट कोटि की साधना में पहुंचकर सकल कर्म क्षय किये और मोक्ष प्राप्त कर लिया । — उत्तराध्ययन वृत्ति २८. अषाढ़भूति मुनि आचार्य धर्मरुचि के अनेक शिष्यों में अषाढ़भूति लब्धिकारी थे । उन्हें तप के · बल पर अनेक लब्धियाँ प्राप्त हो गईं थीं। वे तपस्वी तो उच्च कोटि के थे, लेकिन चमत्कार - प्रदर्शन की भावना को नहीं जीत पाये थे, साथ ही वे अपनी रसना इन्द्रिय को भी प्रणी तरह वश में नहीं कर सके थे।
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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