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३६ जैन कथा कोष ___ एक बार आचार्य धर्मरुचि अपने शिष्य-परिवार सहित राजगृही नगरी में पधारे। उस समय नगरी पर सिंहरथ नाम का राजा राज्य करता था। गोचरी की बेला में आचार्यश्री की आज्ञा लेकर मुनि अषाढ़भूति अकेले ही आहार की गवेषणा में निकल पड़े। गवेषणा करते-करते वे महर्द्धिक नाम के नट के आवास पर पहुँचे। महर्द्धिक नट की दो कन्याएँ थीं—भुवनसुन्दरी और जयसुन्दरी । दोनों ने मुनि अषाढ़भूति को एक मोदक बहराया। मोदक से सुगन्धि उठ रही थी।
मोदक लेकर मुनि अषाढ़भूति जैसे ही बाहर निकले, उनके मन में विचार आया—'यह एक मोदक तो गुरु महाराज के लिए हैं।' ऐसा विचार आते ही उन्होंने लब्धिबल द्वारा नवयुवक का रूप बनाया और दूसरा मोदक ले आये। फिर विचार आया—'यह तो धर्माचार्य के लिए है।' तत्काल काणी आँख वाले साधु का रूप रखा और तीसरा मोदक ले आये। 'यह तो उपाध्याय महाराज के लिए है', ऐसा सोचकर कुबड़े का रूप रखा और चौथा मोदक ले आये। 'यह तो संघ के साधुओं को देना पड़ेगा', ऐसा विचार आते ही पाँचवां मोदक ले आये। 'यह बड़े साधुओं के निमित्त हो गया, यह सोचकर छठा मोदक ले आये। मन में सोच लिया—'यह छठा मोदक मेरे लिए हो गया।' इस प्रकार अपना मनोरथ सिद्ध करके मुनि अषाढ़भूति चले आये और अपने गुरु के पास जा पहुँचे। ___ मुनि अषाढ़भूति तो चले गये, लेकिन उनका यह सब चरित्र-रूप परिवर्तन करना—झरोखे में बैठा महर्द्धिक नट देख रहा था। उसने तुरन्त अपनी स्त्री और दोनों पुत्रियों से कहा—यह साधु स्वाद का लोभी मालूम पड़ता है, इसलिए जब भी आये इसे स्वादिष्ट आहार दिया करो। स्वाद के लोभ में यह सरलता से हमारे जाल में फंस जायेगा और यदि यह हमारे जाल में फंस गया तो सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी सिद्ध होगा, क्योंकि इसे अनेक रूप परिवर्तन करने की लब्धि प्राप्त है।
दोनों युवा पुत्रियों ने पिता की बात को हृदयंगम कर लिया। जब भी मुनि अषाढ़भूति आते, वे दोनों उन्हें स्वादिष्ट भोजन बहराती और हाव-भाव से भी आकर्षित करतीं। अब तो मुनि अषाढभूति उन्हीं के घर गोचरी के लिए आने लगे। नट-कन्याएँ आहार देने के साथ-साथ उनसे हाव-भाव-विलासपूर्वक हास्य भी करतीं।