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जैन कथा कोष ३३ एक बार व्यापार के निमित्त उसने लवण समुद्र की यात्रा की। लवण समुद्र में जाते-जाते अकस्मात् एक बहुत भयंकर तुफान आया। तूफान आने का कारण था एक मिथ्यात्वी देव का कुपित होना । जहाज वालों का भयभीत होना सहज था पर 'अर्हन्नक' अविचल रहा । देवकृत उपसर्ग समझ जहाज में एक ओर बैठकर सागारी अनशन लेकर वह धर्मध्यान में लीन हो गया। ___ उ देव ने विकराल पिशाच का रूप बनाया | अट्टहास करता हुआ अपने रौद्र रूप में 'अर्हन्नक' को सम्बोधित करके बोला-रे अधम ! तू अपने यमनियमों को तिलांजलि दे दे, अन्यथा तुझे मारकर समाप्त करता हूँ और तेरे साथ ही तेरी सारी सम्पत्ति को भी नष्ट कर दूंगा।' यों दो-तीन बार देव के धमकी देने पर भी अर्हन्नक यही सोचकर अचल रहा कि नश्वर तन, धन, परिजनों के लिए मैं अपना अविनश्वर धर्म नहीं छोड़ सकता। __उसे मौन देखकर पिशाच कुपित हुआ। उस विशाल जहाज को अधर
आकाश में उठाकर ले गया और बोला—'अब मैं तेरे इस जहाज को समुद्र में फेंकता हूँ| बोल, अब क्या कहता है?' पर अर्हन्नक के एक रोम में भी भय या कमजोरी नहीं थी। देव ने अपने ज्ञान से उसके धैर्य को देखा और हैरान रहा। अपनी पराजय मानकर जहाज को सुरक्षित स्थान पर ला दिया । अर्हन्नक की सराहना करते हुए अपने अपराध की क्षमा-याचना की। देव-दर्शन अमोघ होते हैं यही सोचकर अपनी ओर से दो दिव्य-कुण्डल युगल अर्हन्नक को भेंट किये और अपने स्थान को चला गया।
अर्हन्नक ने इस कुण्डल-युगलों में एक कुण्डल-युगल मल्लिकुमारी को भेंट किया तथा श्रावकधर्म का पालन कर स्वर्ग में गया।
-ज्ञाता सूत्र ८
२७. अषाढ़भूति आचार्य 'अषाढ़भूति' एक समर्थ आचार्य थे। इनकी शिष्य-सम्पदा पूरे सौ शिष्यों की थी जो शालीन और साधना-रत थी। संयोग की बात सभी शिष्य एक-एक करके आचार्य की आंखों के सामने दिवंगत हो गये। जब लघु शिष्य भी उनकी आंखों के सामने ही दिवंगत होने लगा, तब उनका दिल दहल उठा। कुछ अनास्था के भाव उभर आये । असहायावस्था में ऐसा होना सहज भी है। अतः दिवंगत होते शिष्य से कहा—'वत्स! तू यदि स्वर्ग में जाये तो वहां से