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३२ जैन कथा कोष
उसी समय भगवान् महावीर वहाँ पधारे। यों राजगृही की सम्पूर्ण जनता तथा राजा श्रेणिक भी भगवान् के दर्शन-वन्दन के इच्छुक थे; परन्तु अर्जुनमाली के आतंक के कारण उनका साहस नगर के द्वार खोलने का नहीं हो रहा था । भगवान् का परम भक्त 'सुदर्शन' सेठ भगवान् के दर्शनार्थ लालायित हो उठा । 'सुदर्शन' सेठ के अन्तर्द्वन्द्व ने बाहर वाले भय की अवगणना करने पर उसे उतारू कर दिया । अत्याग्रह करके राजा की आज्ञा लेकर नगर से बाहर निकला। अर्जुन ने ज्यों ही देखा, मुद्गर लिये उसकी ओर दौड़ा। सुदर्शन मारणान्तक कष्ट समझकर सागारी अनशन ले ध्यानस्थ खड़ा हो गया । 'अर्जुन' ने ज्यों ही 'सुदर्शन' पर मुद्गर उठाया, त्यों ही 'सुदर्शन' के अमित आत्म - बल के सामने 'अर्जुन' के शरीर में प्रविष्ट यक्ष उसके शरीर से निकलकर अपने स्थान को चला गया। लगभग छः महीनों से भूखा-प्यासा 'अर्जुन' यक्ष के चले जाने पर मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर गया। सुदर्शन ने साश्चर्य उसे देखा, प्रतिबोध दिया और भगवान् महावीर के पास ले आया । प्रभु उपदेश से प्रभावित होकर अर्जुन ने अपने आपको सम्भाला। अपने किए पर अनुताप करने लगा और मुनिव्रत स्वीकार कर लिया। मुनित्व स्वीकार करके बेले-बेले (दो दिन ) का तप उसने प्रारम्भ कर दिया । भिक्षा के लिए जब नगर में घुसा, तब उसे मुनि-रूप में देखकर लोगों का क्रोध उमड़ना सहज था । अपने पारिवारिक सदस्यों का हत्यारा समझकर मुनि पर कोई पत्थर बरसाने लगा, कोई तर्जना, ताड़ना तथा वचनों से आक्रोश देने लगा। अर्जुनमाली ने इस उपसर्ग को बहुत ही समता से सहा । वह क्षमा की साकार प्रतिमा ही बन गया तथा उत्कृष्ट तितिक्षा से सभी कर्मों का क्षय कर दिया। यों छः महीनों की श्रमण-पर्याय में पन्द्रह दिन की संलेखना करके मोक्ष प्राप्त कर लिया ।
- अन्तकृद्दशा ६/३
२६. अर्हन्नक
जिस समय उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान् मल्लिनाथ मल्लिकुमारी के रूप में अपने पिता मिथिलापति कुम्भ राजा के यहाँ राजमहल में रहते थे, उसी समय चम्पानगरी का रहने वाला ऋद्धिसम्पन्न एक धनी श्रेष्ठी का पुत्र था अर्हन्नक | अर्हन्नक स्वयं भी अच्छा तत्त्वज्ञ था। वह जीवाजीव का ज्ञाता और दृढ़ सम्यक्त्व था। केवली - प्ररूपित आर्हत धर्म पर उसकी अचल श्रद्धा थी ।