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________________ जैन कथा कोष २६ सोरियपुर के महाराज समुद्रविजय के वंशभास्कर 'अरिष्टनेमि' जैन-जगत् के बाईसवें तीर्थंकर हैं। इनका दूसरा नाम नेमिनाथ भी है, किन्तु ये 'अरिष्टनेमि' के नाम से ही अधिक विश्रुत हैं । ये अपराजित नामक चौथे अनुत्तर विमान से च्यवन करके यहाँ आये । समुद्रविजय के सभी पुत्रों में ये छोटे थे। नवम वासुदेव श्रीकृष्ण इनके चचेरे भाई थे। 'नेमिनाथ' तीर्थंकर होने के कारण अमित बली हैं। बल में श्रीकृष्ण इनसे बहुत पीछे हैं। इस रहस्य का उद्घाटन उस समय हुआ जब प्रभु ने आयुधशाला में जाकर उस दिव्य शंख को सहसा ही फूंक दिया, जिसे श्रीकृष्ण के सिवाय कोई उठा भी नहीं सकता था। पांचजन्य नाम का वह दिव्य शंख प्रभु के घोष का सुयोग पाकर बहुत ही तीव्र घोष में फूटा | सुनने वालों को प्रलय की ध्वनि लगी । ' श्रीकृष्ण' और 'बलभद्र' आदि सभी यादव व द्वारिकावासी इस ध्वनि से विक्षुब्ध हो उठे । जब सारा रहस्य खुला, तब श्रीकृष्ण ने नेमिनाथ के इस अमित बल को दूसरी ओर मोड़ना चाहा । बल के बिखर जाने से भविष्य में श्रीकृष्ण की सत्ता हथियाने को नेमिनाथ की ओर से कोई अनिष्ट कदम न उठ सके- यही सोचकर श्रीकृष्ण ने अपने अन्तःपुर में रानियों को आदेश दिया कि वे किसी प्रकार नेमिनाथ को विवाह करने के लिए तैयार करें। फाग के माध्यम से अन्त: पुर की महारानियों ने नेमिनाथ से विवाह करना स्वीकार करवा लिया । यद्यपि ये लगे तो केवल थूक के चेपे ही थे; पर भावीवश या कौतूहलवश नेमिनाथजी यह सारा नाटक देखते रहे । सत्यभामा के सुझाव के अनुसार उसकी छोटी बहन 'राजीमती' नेमिनाथजी के लिए जब विधि समुचित कन्या जँची तब श्रीकृष्ण ने स्वयं जाकर अपने श्वसुर श्री उग्रसेन के भाई के लिए कन्या की याचना की और उग्रसेन के कथनानुसार बारात लेकर श्रीकृष्ण वहाँ गये । अरिष्टनेमि की वह विशाल बारात ज्योंही उग्रसेन के यहाँ विवाह मण्डप के पास पहुँची, त्योंही वहाँ बाड़ों और पिंजड़ों में बन्द हुए पशु-पक्षियों का करुण क्रन्दन प्रभु को सुनाई दिया। वह करुणामय चीत्कार सुनकर प्रभु चौंके सारथी से पूछने पर पता लगा कि इन सबको बारातियों के भोजनार्थ यहाँ इकट्ठा किया गया है। ज्यों-ज्यों बारात निकट आ रही है, त्यों-त्यों इन्हें अपनी मृत्यु नजदीक आती-सी लग रही है। बस, इसीलिए ये बेचारे छटपटा रहे हैं । नेमिनाथजी सारथी की यह बात सुनकर सिहर उठे । सहसा उनका चिन्तन बदला । सारथी से रथ मोड़ने को कहते हुए बोले- 'मुझ एक के लिए इतने
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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