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________________ ३६४ जैन कथा कोष मुझे तो बहुत रौद्र रूप दीख रहे हैं, दारुण चीत्कारें सुनाई दे रही हैं, मानो नारकीय जीवन की लेश्या पहले ही आ गई हो । पिता की मृत्यु के उपरान्त पारिवारिक जनों ने 'सुलस' से प्रमुख पद संभालने के लिए कहा । 'सुलस' तैयार हो गया। तब पारिवारिक जनों ने तलवार देकर भैंसे पर चलाने को कहा, क्योंकि भैंसे को मारकर प्रमुख पद पाने की परम्परा उसके परिवार में थीं। तब सुलस ने साफ कहा-'मैं भैंसे पर तलवार नहीं चला सकता। यदि चलाना आवश्यक ही हो तो मैं अपने पैर पर चला सकता हूँ। ऐसा कहकर अपने पैर पर तलवार चलाने को हाथ उठाया । पारिवारिक जनों ने लपककर उसका हाथ पकड़ लिया। 'सुलस' ने अपना मन्तव्य सफ करते हुए कहा- - जैसा मुझे दुःख होता है वैसा ही दुःख भैंसे को भी होता है। मनुष्य अपनी सुख-दुःख की अनुभूति बोलकर व्यक्त कर सकता हूँ, पर यह मूक प्राणी नहीं कर सकता । परन्तु जीनेमरने की आशा और भय सभी जीवों को समान होता है। पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए मैं तैयार हूँ, परन्तु मूक पशु पर तलवार का प्रहार करके नहीं। यह अनर्थ तो मेरे से सम्भव नहीं है। सारे पारिवारिक जनों पर 'सुलस' की बात का प्रभाव पड़ा। उन्होंने भी बिना किसी हिंसा और हिचकिचाहट के 'सुलस' को गृहपति पद पर नियुक्त कर दिया। -आवश्यक कथा . २११. सुलसा 'राजगृह नगर' के महाराज ' श्रेणिक' के एक प्रतिपात्र रथिक का नाम 'नाग' था और नाग की पत्नी का नाम 'सुलसा' था । 'सुलसा' पतिपरायणा और दृढ़धर्मिणी नारी थी। भगवान् महावीर की परम श्राविकाओं में उसका प्रमुख स्थान था। इतना सब कुछ होते हुए भी उसके कोई सन्तान नहीं थी । सन्तान की चिन्ता 'नाग' के मन में भी थी तथा 'सुलसा' के मन में भी। फिर भी अपने कृतकर्मों का परिपाक मानकर सुलसा धर्मध्यान में समय बिताती थी । 'नाग' को दूसरा विवाह करने का नियम था । 'सुलसा' सन्तान प्राप्ति के लिए कोई भी धर्मविमुख उपक्रम या अनुष्ठान करने को तैयार नहीं थी । वह पूर्ण समताशील होकर जीवन बिता रही थी ।
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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