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________________ जैन कथा कोष ३६३ 'सुरादेव' को बहुत अनुताप हुआ। सोचा—इतनी साधना करने पर भी मेरे मन में शरीर के प्रति अब भी गहरी आसक्ति है, ममत्व है। तभी तो मैं विचलित हो उठा। ऐसा विचार कर जीवन की अन्तिम घड़ियों में पूर्णत: विदेहभाव की साधना करने लगा। श्रावक प्रतिमाओं की आराधना की। समाधिपूर्वक एक मास का अनशन करके सौधर्म स्वर्ग में गया। वहाँ से महाविदेह में होकर निर्वाण को प्राप्त करेगा। -उपासकदश, ४ २१०. सुलस 'राजगृह' निवासी 'सुलस' कालसौकरिक कसाई का पुत्र था । कालसौकरिक कसाई अपने ढंग का एक अनूठा कसाई था। वह प्रतिदिन पाँच सौ भैसों का बध किया करता । इस महावध को वह किसी भी मूल्य पर छोड़ने को तैयार नहीं था। स्थिति यहाँ तक आ गई कि एक बार महाराज श्रेणिक' ने उसे एक दिन वध न करने के लिए कहा। बात स्पष्ट करते हुए महाराज ने यहाँ तक भी कह दिया कि यदि तू एक दिन भी भैसों को नहीं मारेगा तो मैं नरक की यातना से बच जाऊँगा। फिर भी वह टस से मस नहीं हुआ। श्रेणिक ने अपना शासकीय रूप दिखाते हुए ऐसा न करने के लिए कहा। केवल कहा ही नहीं अपितु उसे कुएं में उतरवा दिया। 'श्रेणिक' मन-ही-मन पुलकित हो रहा था कि मैंने उसका भैंसे मारना बन्द करवा दिया है। __ भगवान् महावीर ने बात का भेद खोलते हुए कहा—'वह तो वहाँ बैठा हुआ भी कर्दम और अपने मैल के भैंसे बना-बनाकर उन्हें मारकर भाव-हिंसा कर रहा है। श्रेणिक ने निराश होकर जब उसे बाहर निकाला और उससे ऐसा करने का कारण पूछा तब उसने साफ-साफ कहा—प्राण रहते मैं अपने कुल का धंधा कैसे छोड़ सकता हूं?' ___संयोग की बात, ऐसे क्रूरकर्मी पिता के पुत्र पैदा हुआ 'सुलस' जैसा मृदु स्वभाव का। 'अभय' के सम्पर्क में आकर तो 'सुलस' और भी अधिक पापभीरु बन गया। कालसौकरिक ने अपने अन्त समय में सुलस से अपने कुल-क्रम का सांगोपांग निर्वाह करने को कहा। स्वयं मरते समय विलाप करता हुआ मरा
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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