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________________ ३६२ जैन कथा कोष एक बार भगवान् ‘महावीर' वाराणसी नगरी में पधारे । 'सुरादेव' दर्शनार्थ गया। उपदेश सुनकर पुलकित हो उठा। श्रावकधर्म स्वीकार किया। श्रावकधर्म पालन करते रहने पर एक दिन उसके मन में विचार आया—घर का सारा कार्यभार बड़े पुत्र को सौंपकर मुझे अपना शेष जीवन धर्माराधना में बिताना चाहिए । सुनने वालों ने भी उसके निर्णय का स्वागत किया। ___'सुरादेव' अपना चिन्तन साकार करने के लिए घरेलू झंझटों से बिल्कुल ही मुक्त हो गया। पौषधशाला में ही अपना अधिक समय लगाने लगा। एक दिन वह पौषधशाला में ध्यान में लीन था। सभी ओर घुप अंधेरा छाया हुआ था। इतने में हाथ में तलवार लिये हुए भयंकर रूप बनाकर एक देव वहाँ आया। विकट अट्टहास करता हुआ तथा अपने रौद्र रूप से 'सुरादेव' को भयभीत करता हुआ बोला—'ओ पुण्यहीन ! ध्यान को भंग कर उठ, अन्यथा तेरे तीनों पुत्रों को तेरे सामने मारकर, उनके शरीर के मांस के शूले पकाकर तेरे शरीर पर मलूंगा। तेरी सारी चमड़ी जल जायेगी। तुझे तड़पतड़पकर मरना पड़ेगा।' 'सुरादेव' देव की चुनौती को सुनकर भी अविचल रहा । देव ने एक-एक करके तीनों पुत्रों को उसके सामने लाकर मार दिया परन्तु श्रावक सुरादेव का धैर्य नहीं टूटा। देव ने चौथी बार चुनौती देते हुए कहा-अरे ओ अनिष्टकामी ! अब भी तू अड़ा हुआ है अपने हठ पर। ले, अब तुझे भयंकर रोगों की भट्टी में डालता हूं। तू उसमें पड़ा-पड़ा भयंकर वेदना भोगता हुआ हाय-हाय करता मरेगा। ___ इस बार सुरादेव के रोंगटे खड़े हो गए। धैर्य डोल उठा। सोचा-कहीं ऐसा अनर्थ न कर दे । यही सोचकर चिल्लाता हुआ उसे पकड़ने उठा। आंख खोलकर देखा तो कहाँ रौद्र रूप? वहाँ तो कुछ भी नहीं था। उसकी चिल्लाहट सुनकर अन्दर से उसकी धर्मपत्नी आयी, और शोर करने का कारण पूछा। उसने सारी बात बताई। तब 'धन्या' ने कहा—नाथ ! हो न हो कोई देव आपको छलने आया था। यह सब उसी का प्रपंच था। आपके तीनों पुत्र सकुशल अन्दर सोये हुए हैं। आप चिन्ता न करें। परन्तु आपके पौषध में यह अतिचार लगा। इसका प्रायश्चित करके शुद्धि करें।
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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