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जैन कथा कोष ३६५
एक बार देवेन्द्र ने देवसभा में 'सुलसा' की समता की सराहना करते हुए कहा—'सुलसा' इतनी समता वाली है, चाहे उसकी कोई कितनी भी हानि कर दे, परन्तु उसे क्रोध नहीं आता।
उसकी परीक्षा लेने एक देव साधु का रूप बनाकर 'सुलसा' के घर आया। 'सुलसा' ने वन्दना कर। आहार-पानी लेने की प्रार्थना की। साधु ने कहा'भोजन देने वाले तो और भी नगर में बहुत मिल जायेंगे। मुझे तो तेरे यहाँ से लक्षपाक तेल लेना है।' परम प्रसन्न बनी 'सुलसा' लक्षपाक तेल का घट उठाकर लायी। घड़ा ज्यों ही उठाया, देव ने अपनी माया से गिराकर फोड़ दिया। इसी प्रकार दूसरा-तीसरा घड़ा भी फोड़ दिया। फिर भी सुलसा न कुपित हुई और न ही कीमती वस्तु के विनष्ट होने पर व्यथित ही।
अफसोस व्यक्त करते हुए मुनि बोले-'मेरे योग से तेरा इतना नुकसान हुआ।'
'सुलसा' ने अपनी सहजता से कहा—'मुनिवर ! इसकी मुझे चिंता नहीं है। परन्तु आपको आवश्यकता की औषधि दे नहीं सकी, इसका खेद अवश्य
___देव ने उसकी तितिक्षा देखकर अपने असली रूप में प्रकट होकर सारी बात कही—'तू इन्द्र द्वारा प्रशंसित है। मैं परखने आया था, और तू मेरी परख में खरी सिद्ध हुई। मैं प्रसन्न हूँ, इच्छित वर माँग।' ____ 'सुलसा' ने कहा—'सही धर्म मुझे मिला हुआ है और मुझे किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं है।' फिर भी देव का देने का अत्याग्रह देखकर 'सुलसा' ने कहा—'आप यदि देना ही चाहते हैं तो एक पुत्र हो ऐसा उपाय बताईये।'
देव ने प्रसन्न होकर बत्तीस गोलियाँ दीं। एक-एक गोली से एक-एक पुत्र हो जाएगा, ऐसा कहा। देव उसकी प्रशंसा करता हुआ अन्तर्ध्यान हो गया। ___ 'सुलसा' ने सोचा-मुझे बत्तीस पुत्रों की क्या आवश्यकता है? अच्छा होगा, बत्तीस गोलियाँ एक साथ ही खा लूँ, जिससे बत्तीस लक्षणों वाला एक ही पुत्र हो जाएगा। ऐसा विचारकर बत्तीस गोलियाँ एक साथ ही खा लीं।
संयोगवश बत्तीस जीव गर्भ में आये। जब गर्भ बढ़ने लगा तो 'सुलसा' के असह्य दर्द होना ही था। आखिर था तो पेट ही, गोदाम तो था नहीं। सुलसा ने देव को याद किया। देव ने सान्त्वना दी। ऐसा करने के लिए टोका भी। खैर,