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________________ ३५६ जैन कथा कोष ऋषि की लम्बी दाढ़ी पर बैठ गये । 'जमदग्नि' शान्त भाव से लेटे रहे। बात का प्रारम्भ करते हुए चकवे ने चकी से कहा- 'प्रिये ! मैं हिमालय की सैर करने जाता हूं । तू इस महान् तपस्वी के आश्रम में रहना । मैं जल्दी ही लौट आऊँगा ।' चकवी बोली—तुम रूपलोलुप और रसलोलुप हो । जल्दी लौट आने का कहते तो हो, परन्तु तुम्हारा क्या विश्वास ! वहीं कहीं रम गए और मेरे पास नहीं आये तो ? चकवा — सुभर्ग ! घबरा मत ! मैं अपने वचन का पालन करूंगा । यदि जल्दी लौटकर नहीं आऊँ तो गो-हत्या तथा विश्वासघात जितना पाप मुझे लगे, यह मैं शपथपवूक कहता हूं । चकवी — ऐसी शपथों में क्या धरा है? ऐसी शपथें खाने वाले कई मिलते हैं। मैं नहीं मानती । मैं तो तब मानूं जब तुम शपथपूर्वक यह कहो कि यदि मैं समय पर नहीं आऊँ तो मुझे इस तापस जितना पाप लगे । चकवी की बात सुनकर जमदग्नि आगबबूला हो गये। दोनों पक्षियों को हाथ में पकड़कर पूछा- - मैं बहुत लम्बे समय से दुष्कर तप कर रहा हूं। फिर ऐसा मैंने कौन-सा पाप किया है जो तुम उसे गोहत्या और विश्वासघात से भी अधिक बतलाते हो? दोनों ही पक्षियों ने कहा- पापमूर्ति मुनिवर ! इससे अधिक क्या पाप होगा? आप बिना सन्तान पैदा किये ही तपस्वी बन गये । आप भूल बैठे उस श्रुतिवाक्य को, जिसमें कहा गया है 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति —– पुत्रहीन व्यक्ति की गति नहीं होती । ' जमदग्नि को बात जंच गई। मन विचलित हो उठा। शादी करने के लिए उतावले हो गये। मुनि की मनोभावना देखकर धन्वन्तरि देव बहुत लज्जित हुआ। उसने जैन मुनि की दृढ़ता देखकर साथी देव से क्षमायाचना की और जैन धर्म एवं जैन साधुओं के प्रति श्रद्धा प्रकट की । 'जमदग्नि' आश्रम से निकलकर 'जितशत्रु' के पास गये। शादी के लिये एक कन्या की भिक्षा मांगी। राजा को यह मांग कुछ अटपटी-सी तो अवश्य लगी, पर मुनि कहीं शाप न दे दें इसलिए कहा – ' जो कन्या आपको चाहेगी, उसी कन्या को मैं आपको दे दूंगा।' ऋषि के इस दुबले-पतले, मटमैले शरीर को देखकर किस राजकन्या को
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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