________________
जैन कथा कोष ३५५ हुआ कि 'सुभद्रा' के जीवन-व्यवहार से पारिवारिक जनों पर अच्छा प्रभाव पड़ा। वे सब भी जैनधर्मावलम्बी बन गये।
'सुभद्रा' विरक्त होकर साध्वी बनी। सकल कर्म क्षय करके निर्वाण प्राप्त किया।
–दशवैकालिकनियुक्ति, अ. १, गाथा ७३
२०७. सुभूम चक्रवर्ती 'हस्तिनापुर' के महाराज का नाम था 'अनन्तवीर्य'। नेमिककोष्टक नगर के महाराज 'जितशत्रु' की पुत्री रेणुका' की बड़ी बहन उनकी धर्मपत्नी थी।
एक बार वसन्तपुर नगर का निवासी 'अग्निक' नाम का बालक घूमता हुआ किसी तापस के आश्रम में पहुँचा | वहाँ के कुलपति 'जम' ने उसे अपने पुत्र रूप में स्वीकार करके अपने पास रख लिया। उसका नाम रखा 'जमदग्नि'। 'जमदग्नि' वहाँ तपस्या में लग गया।
उस समय स्वर्ग में 'वैश्वानर' और 'धन्वन्तरि' नाम के दो देव थे। पहला सम्यकदृष्टि था, दूसरा मिथ्यादृष्टि। दोनों ने एकदा अपने-अपने धर्म और विचारों की पुष्टि की। बात ने विवाद का रूप ले लिया। 'वैश्वानर' ने यहाँ तक कह दिया—एक शैव चाहे कितनी ही लम्बी साधना कर ले, परन्तु वह एक साधना स्वीकृत करने को उद्यत जैन की तुलना नहीं कर सकता।
दोनों परीक्षा करने के लिए तैयार हो गये। दोनों ही मध्यलोक में आये। एक जैन साधक के पास गये, जिसका नाम था 'पद्मरथ'। वह 'मिथिला' का शास्ता था। विरक्त होकर 'वासुपूज्य' मुनि के पास दीक्षित होने जा रहा था। दोनों ने ही उसे लक्ष्य से विचलित करने के लिए अनेक प्रकार के अनुकूलप्रतिकूल प्रयत्न किये, परन्तु उसे विचलित नहीं कर सके। दोनों ही देव अपनी हार मानकर वहाँ से आगे चल दिये। 'वैश्वानर' ने धन्वन्तरि से कहा-"मेरा साधक तो परीक्षा में पूर्णत: सफल हो गया। अब तुम अपना साधक प्रस्तुत करो।"
धन्वन्तरि 'वैश्वानर' को लेकर घोर तपश्चरण करने वाले जमदग्नि' ऋषि के पास आया। 'धन्वन्तरि' को विश्वास था-'जिसके चेहरे पर साधना का तेज टपक रहा है, वह निश्चित ही पहुँचा हुआ साधक है। मेरी बात अक्षरशः प्रमाणित होगी।' ऐसा सोचकर दोनों देव चकवा-चकवी बनकर 'जमदग्नि'