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जैन कथा कोष ३१७ सुभद्रा के ताने से प्रबुद्ध होकर जब धनजी ने आकर ललकार लगाई तब शालिभद्र भी सभी पत्नियों को एक साथ छोड़कर नीचे उतर आया। भद्रा की प्रार्थना पर महाराज श्रेणिक ने दोनों के दीक्षा-महोत्सव किये। दोनों ने भगवान महावीर के पास संयम ग्रहण किया। धनजी की आठों पत्नियों ने भी संयम लिया। शालिभद्र ने मास-मास का तप करके शरीर का सार निकाला। अन्त में अनशन करके शालिभद्र मुनि सर्वार्थसिद्ध में पहुँचे। वहाँ से महाविदेह में होकर मोक्ष में जायेंगे। धनमुनि ने निर्वाण प्राप्त किया।
-स्थानांगसूत्रवृत्ति
-धन्य-शालिभद्र चरित्र १८४. शिवराज ऋषि 'हस्तिनापुर' के महाराज 'शिव' ने अपने पुत्र 'शिवभद्र' को राज्य का भार सौंपकर तापसी दीक्षा स्वीकार की। दो-दो दिन का व्रत करने लगे। इस प्रकार उत्कट तप करते हुए काफी समय व्यतीत हो गया तब 'शिवराज' ऋषि को विभंगज्ञान हुआ। उन्होंने अपने ज्ञान से सात द्वीप तथा सात समुद्र देखे। __अल्पज्ञ की यही प्रकृति होती है कि वह अपने-आपको सर्वज्ञ मानने लग जाता है। शिवराज ऋषि के साथ भी यही हुआ। उन्होंने भी अपने इस सिद्धान्त की स्थापना पूरे जोश से करनी शुरू कर दी कि लोक में सात द्वीप
और सात समुद्र ही हैं। इससे आगे कुछ भी नहीं है। ___ संयोगवश भगवान् महावीर वहाँ पधारे । गौतम स्वामी शहर में भिक्षा लेने के लिए गये। लोगों के मुँह से शिवराज ऋषि की मान्यता की चर्चा सुनी। गौतम स्वामी के मन में विचार आया तथा उन्होंने प्रभु के पास आकर सारी बात कही।
भगवान् महावीर ने कहा-द्वीप, समुद्र सात नहीं हैं अपितु संख्यातीत हैं। शिवराज ऋषि ने अपने विभंगज्ञान (जो कि अपूर्ण हुआ है) से इतना ही देखा है, इसलिए वह इतना ही बता रहा है।
प्रभु की देशना की बात नगर में फैली। जब शिवराज ऋषि के पास यह बात पहुँची, तब स्वयं चलकर वह प्रभु के पास में आया। सही तत्त्व समझकर सम्यक्त्वी बना, संयमी बना और उसी क्षेत्र और उसी भव में निर्वाण प्राप्त किया।
-भगवती ११/६