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________________ जैन कथा कोष २६७ स्वाध्याय की इस छोटी-सी घटना से हजारों-लाखों का जीवन चमक उठा। - आख्यानक मणिकोश, १४/४४ — उपदेश प्रासाद, १५/२१४ - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक, ८७ १६८. रहनेमि-राजीमती 'द्वारिका' नगरी श्रीकृष्ण वासुदेव की राजधानी थी। सोलह हजार राजाओं पर उनका अधिकार था । उन सोलह हजार राजाओं में महाराज 'उग्रसेन' भी थे । . इनकी रानी ' धारिणी' से उत्पन्न एक पुत्री थी। उसका नाम राजुल था । इसे राजीमती भी कहते हैं। श्री नेमिनाथ गृहस्थावास में रहकर भोगों से विमुख थे। श्रीकृष्ण द्वारा प्रेरित होकर उनकी महारानियों के द्वारा फैलाए वाक्जाल द्वारा नेमिनाथ को ज्यों-त्यों विवाह करने के लिए मना लिया गया । विवाह के दिन जब बारात सज-धजकर तोरण में पहुँची तब पशुओं की करुण चीत्कार सुनकर प्रभु अविवाहित लौट गए। समुद्रविजय, उग्रसेन, श्रीकृष्ण वासुदेव का अत्याग्रह भी नेमिनाथ को विवाह के लिए तैयार नहीं करा सका । वर्षीदान देकर प्रभु संयमी बन गए। 1 राजीमती भी ऐसी-वैसी कन्या नहीं थी । नेमिनाथजी से नौ भवों का सम्बन्ध था। वह भी एक सुसंस्कारी कन्या थी । सर्वार्थसिद्ध विमान से च्यवन करके यहाँ आयी थी। राजीमती को पाने के लिए कई राजकुमार लालायित थे पर राजुल इस निर्णय पर आयी कि स्त्री का पति एक ही हुआ करता है। जब वे ही मुझे छोड़कर चले गये हैं तो मेरे लिए भी उसी पथ का अनुसरण समुचित रहेगा जो नेमिनाथजी ने ग्रहण किया है। मैं भी संयम लूंगी । यों निर्णय करके संयम स्वीकार करके साधना में लीन रहने लगी । एक बार भगवान नेमिनाथ के दर्शनार्थ राजीमती जा रही थी । सतियों का समूह साथ था । अकस्मात् घनघोर वर्षा होने के कारण सारी सतियां तितर-बितर हो गयीं। कोई किधर गयी, कोई किधर गयी। वर्षा में सब की सब तरबतर थीं। राजुल वर्षा के उत्पात से बचने के लिए एक गुफा में पहुँच गयी। गुफा में अंधेरा था । निर्जन स्थान समझकर राजीमती अपने कपड़े उतारकर निचोड़ने लगी। उसी समय सहसा बिजली की चमक से 'राजीमती' का दिव्य रूप गुफा में ध्यानस्थ खड़े 'रथनेमि ( रहनेमि ) मुनि ने देखा । 'रथनेमि' भगवान्
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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