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________________ २६८ जैन कथा कोष 'नेमिनाथ' के लघु भ्राता थे। 'राजुल' के देवर थे। वे पहले भी 'राजुल' के प्रति आकृष्ट थे। 'राजीमती' को पाने का प्रयत्न भी किया था, पर वे असफल रहे । जब उसे आज पुनः देखा तो अपना सारा भान भूल बैठा। संयम की शान को भूलकर प्रणय की याचना करते हुए बोले-भद्रे ! इस यौवन को यों गंवाना उचित नहीं है। मैं तेरे लिए सर्वात्मना समर्पित हूँ। आ जा, हम दोनों मिलकर एक नया ही संसार बसाएं। सिंहनी की भांति दहाड़ती हुई राजीमती बोली-रथनेमि ! यह आप क्या बोल रहे हैं? आपने संयम लिया है। एक संयमी को क्या ऐसे शब्द शोभा देते हैं? देखिए, विचार करिए, आप कौन हैं? मैं कौन हूँ? अपना कुल कैसा उज्जवल है? इसे कलंकित मत कीजिए। ___ रथनेमि—माना मैंने संसार छोड़ा है, पर तेरे लिए तो अब संयम भी छोड़ने के लिए तैयार हूँ। कुछ दिन वैषयिक सुखों का उपभोग करके क्या संयम फिर नहीं लिया जा सकता? ___ राजीमती—धिक्कार है आपके इन विचारों को ! आपके बड़े भाई नेमिनाथ मुझे छोड़कर गए। उनके द्वारा वमित की हुई मुझको आप पुनः लेने को ललचा रहे हैं। जातिवान सर्प अग्नि में पड़कर जल जाता है, पर वमित विष को वापस नहीं चूसता । मुनिवर, आप भी जातिवान हैं। संयम-रत्न का मोल आंकें। मैं तो स्वप्न में भी आपको नहीं चाहूंगी। भला जब आप मुझे यों देखते ही भान भूल बैठे, तब घर-घर में भिक्षा को जायेंगे, सुन्दर बालाओं को देखेंगे, यों मन को विचलित करेंगे तो आपको कौन साधु कहेगा? साधुत्व का निर्वाह कैसे कर सकेंगे? अब भी कुछ नही बिगड़ा है। अपने आप को काबू करिये। राजीमती की इस शिक्षा ने रथनेमि के लिए अंकुश का काम किया। मुक्तकंठ से राजुल का गुणगान करते हुए भगवान् 'नेमिनाथ' के पास गये। अपने विचलित मन की आलोचना की। प्रायश्चित लेकर संयम-मार्ग पर पुनः आरूढ़ हुए और निरतिचार संयम की साधना करके केवलज्ञान प्राप्त किया। . सती राजीमती ने भी अपने कपड़े अवेर कर प्रभु के दर्शन किये। संयमतप में लीन रहकर केवलज्ञान प्राप्त किया। भगवान् नेमिनाथ से चौवन दिन पहले निर्वाण प्राप्त लिया। -उत्तराध्ययन सूत्र, अ. २२
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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