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जैन कथा कोष २८७ सैंतालीसवें वर्ष में केवलज्ञान प्राप्त किया। सोलह वर्ष केवल-पर्याय रहे। अपनी बासठ वर्ष की आयु में इन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।
-आवश्यकचूर्णि
१६३. मेतार्य मुनि राजगृह में एक श्रेष्ठी रहता था। उसकी सेठानी मृतवत्सा थी, अर्थात् उसके मरे हुए बच्चे पैदा होते थे या होते ही मर जाते थे। सेठ-सेठानी इस कारण बड़े. दु:खी रहते थे। उनके घर मेती नाम की एक चाण्डालिनी आया करती थी। सेठानी ने उससे अपना दु:ख कहा। मेती ने अपना पुत्र सेठानी को देने का वचन दे दिया।
मेती के एक सुन्दर पुत्र हुआ और सेठानी के एक कुरूपा कन्या। दोनों ने अदला-बदली कर ली। पुत्र पाकर सेठ-सेठानी फूले न समाये। बड़ी धूमधाम से पुत्र का जन्मोत्सव मनाया और उसका नाम मेतार्य रखा। ... मेतार्य का जीव इससे पूर्वजन्म में वैमानिक देव था और उससे पहले जन्म में उज्जयिनी के पुरोहित का पुत्र । यह पूर्व-जन्म में राजा के पुत्र के साथ मिलकर साधु-संतों को सताया करता था। किन्तु मुनि सागरचन्द्र के निमित्त से इसने संयम स्वीकार किया।
मुनि सागरचन्द्र साकेतपुर के राजा चन्द्रावतंसक के पुत्र थे। राजा चन्द्रावतंसक के सुदर्शना और प्रियदर्शना नाम की दो रानियाँ थीं। सुदर्शना से उनके दो पुत्र हुए—बड़ा सागरचन्द्र और छोटा मुनिचन्द्र । प्रियदर्शना से भी उनके दो पुत्र हुए—एक गुणचन्द्र और दूसरा बालचन्द्र।
एक बार राजा चन्द्रावतंसक पौषध में बैठे थे। उन्होंने अभिग्रह किया कि जब तक दीपक जलता रहेगा, मैं कार्योत्सर्ग में लीन रहूंगा। राजा के अभिग्रह से अनजान दासी दीपक में तेल डालती रही। उसकी भावना यह थी कि तेल समाप्त होने से दीपक बुझ न जाय, जिससे अन्धकार के कारण राजा के पौषध में विघ्न हो। इस प्रकार दीपक रात-भर जलता रहा और राजा भी कायोत्सर्ग में लीन रहे। रात-भर खड़े रहने से राजा का शरीर अकड़ गया। समभाव से देह त्यागकर वे स्वर्ग में देव बने ।
पिता के यों आकस्मिक निधन से सागरचन्द्र के हृदय में वैराग्य की लहर उठी। वह संयम लेना चाहता था; लेकिन मुनिचन्द्र तो उज्जयिनी का शासन