SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ जैन कथा कोष संभाल रहा था और गुणचन्द्र तथा बालचन्द्र अभी छोटे थे; इसलिए उसे साकेतपुर का शासन चलाने के लिए रुकना पड़ा । विरक्त होते हुए भी विमाता प्रियदर्शना के आदेश से वह साकेतपुर का शासन संचालन करने लगा । सागरचन्द्र के कुशल शासन संचालन से उसका यश फैलने लगा। इससे विमाता को उससे ईर्ष्या हुई। उसने सागरचन्द्र को मारने के लिए विष मोदक भेजा, लेकिन भाग्य योग से वह विष मोदक उसी के पुत्र गुणचन्द्र - बालचन्द्र ने खा लिया। विष के लक्षण प्रकट होने लगे । सागरचन्द्र ने तुरन्त मणिमंत्र से उनका विष उतार दिया। वे स्वस्थ हो गए। लेकिन इस घटना से सागरचन्द्र विरक्त हो गया । उसने दीक्षा ले ली और मुनि सागरचन्द्र बन गये। मुनि सागरचन्द्र विहार करते हुए उज्जयिनी आये। यद्यपि उज्जयिनी नरेश उनका छोटा भाई बहुत ही धर्मनिष्ठ था, किन्तु उसका पुत्र और पुरोहितपुत्र दोनों ही श्रमणद्वेषी थे, वे साधु-संतों को तंग किया करते थे । उन्होंने मुनि सागरचन्द्र को भी बहुत परेशान किया। तब उन्हें शिक्षा देने के उद्देश्य से मुनिश्री ने उनकी हड्डियाँ उतार दीं और स्वयं उज्जयिनी से बाहर आकर इस अकृत्य का प्रायश्चित लेकर कायोत्सर्ग में लीन हो गये । जब राजा मुनिचन्द्र को इस घटना का पता लगा तो उसे अपने पुत्र तथा पुरोहित-पुत्र के अकृत्य पर बड़ा दुःख हुआ । उसने मुनिराज से क्षमा माँगी और दोनों को स्वस्थ करने की प्रार्थना की। मुनिश्री ने उन दोनों को इस शर्त पर ठीक किया कि स्वस्थ होते ही वे मुनि दीक्षा ले लेंगे। वचनबद्धता के अनुसार युवराज और पुरोहित पुत्र दोनों दीक्षित हो गये और आयु पूर्ण कर वैमानिक देव बने । एक बार दोनों देव नंदीश्वर द्वीप गये । वहाँ तीर्थंकर देव के दर्शन करके पूछा—भगवन् ! हम सुलभबोधि होंगे या दुर्लभबोधि ? तीर्थंकरदेव ने बताया — युवराज ! तुम तो सुलभबोधि हो; किन्तु पुरोहितपुत्र दूर्लभबोधि है। यह सुनकर पुरोहित-पुत्र वाले देव ने अपने मित्र युवराज वाले देव से कहा - 'तुम मुझे प्रतिबोध देना ।' युवराज वाले देव ने भी ऐसा करने का वचन दिया । वही पुरोहित पुत्र वाला देव स्वर्ग से च्यवन करके मेतार्य नाम से मेती चाण्डालिनी के गर्भ से उत्पन्न हुआ और राजगृह के सेठ के यहाँ पला ।
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy