________________
जैन कथा कोष २८५
कम-से-कम एक दिन का राज्य तो कर लो । '
सोचा था, राज्य - सिंहासन मिलते ही उसमें फंस जाएगा। पर हुआ उल्टा। माता-पिता के आग्रह से जब राज्याभिषेक कर दिया गया, तब मेघ बोला—— 'अब मेरी आज्ञा सबको मान्य होगी ही । अतः शीघ्रतिशीघ्र रजोहरण एवं पात्र लाओ। मैं संयम लूंगा।' राजसी ठाठ को ठुकराकर 'मेघकुमार' संयमी
बन गया ।
रात्रि के समय मेघमुनि को सोने के लिए स्थान द्वार के पास मिला । रात में सन्तों के आने-जाने के कारण मेघ मुनि को नींद नहीं आयी । नींद नहीं आने से 'मेघमुनि' खिन्न हो गये । विचारों में शिथिलता आ गई। पहले तो सारे मुनिगण मुझसे इतने प्रेम से बोलते थे, पास में बिठाते थे। आज इन्होंने मुझे यों फुटबाल बना रखा है। पहली रात में ही यह हाल है तो आगे क्या शुभ की आशा की जाए। मैं तो प्रातःकाल प्रभु से पूछकर अपने घर चला जाऊँगा ।
प्रातःकाल होते ही प्रभु को पूछने तथा झोली - झंडे सौंपने के लिए 'मेघमुनि' प्रभु के पास आए, वंदना की। भगवान् तो पहले ही 'मेघमुनि' की मनोभावना देख चुके थे । अतः सम्बोधित करते हुए एवं प्रबुद्ध करते हुए कहा—'मेघ एक रात्रि के कष्ट से तू यों घबरा गया। अधीर हो उठा। घर जाने को तैयार हो गया, पर तुझे याद है तू पिछले जन्म में कौन था ? देख, तू पिछले जन्म में हाथियों के झुण्ड का स्वामी था । अनेक हथिनियों के साथ मस्त बना तू रह रहा था। तू पहले एक बार मेरुप्रभु हाथी के भव में दावानल में जल चुका था। इसलिए अगली बार तू चार कोस भूभाग के वृक्षों को तथा घासफूस को उखाड़कर अपने-आपको सुरक्षित अनुभव कर रहा था । संयोगवश एक बार वन में दावानल लगा । जंगल के सभी जीव-जन्तु उसी मैदान में आ गए, जहाँ तू रह रहा था । वह मंडल जीवों से भर गया था । तू खड़ा था । तेरे पैर में खुजलाहट चली । तूने पैर को खुजलाने के लिए ऊपर किया । इतने में तेरे पैर के स्थान पर एक शशक आ बैठा । तूने पैर नीचे रखना चाहा तो उस खरगोश को देखकर सोचा, मेरे कारण यह मर जाएगा । यों तीन दिन तक ऊपर पैर किए खड़ा रहा। इतने में दावानल शान्त हुआ । सारे प्राणी अपनेअपने स्थान की ओर चले गये। जब तूने पैर नीचा किया तब तक पैर अकड़ चुका था। पैर रखते ही तू गिर गया और वहाँ तेरी मृत्यु हो गई । वहाँ से मरकर
1