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२८४ जैन कथा कोष 'चन्दनबाला' ने भी केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। 'मृगावती' ने केवल-पर्याय का पालन कर मोक्ष प्राप्त किया।
—आवश्यकनियुक्ति, गा. १०४८
- -दशवैकालिकनियुक्ति
१६१. मेघकुमार राजगजी के महाराज 'श्रेणिक' एक बार सिंहासन पर उदास बैठे थे। सदा की भांति 'अभयकुमार' पिता को प्रणाम करने आया। अपने पिता को चिन्तित देखकर 'अभय' ने चिंता का कारण जानना चाहा। महाराज श्रेणिक' ने चिन्ता को मिटाने वाला समझकर 'अभय' से कहा—'वत्स ! चिन्ता का एक कारण है, तेरी विमाता धारिणी के गर्भ के योग से मनोभाव बने हैं कि मैं महाराज के साथ हाथी पर सवार होकर वन-क्रीड़ा करने जाऊँ। उस समय वर्षा हो रही हो, चारों ओर हरियाली से वन, वनस्थली खिल रही हो । बस, इसी चिन्ता में दुर्बल हो रही है। इस असमय में वर्षा कैसे हो?' __'अभयकुमार' ने सांत्वना देते हुए कहा—'मैं मातु-श्री की भावना को पूरी करने का प्रयास करूंगा। आप चिन्ता न करें।' ___ 'अभयकुमार' पौषधशाला में गया। तीन दिन का तप करके ध्यान में बैठ गया। अपने पूर्व-परिचित देव को आमन्त्रित किया। तीन दिन के बाद देवता आया। 'धारिणी' का मनोरथ पूरा करने को अकाल में देवता ने वर्षा की। महारानी भी महाराज के साथ हाथी पर चढ़कर वन में गई। हरित भूमि को देखकर परम प्रसन्न हो उठी।
सवा नौ महीनों के बाद पुत्र का जन्म हुआ। मेघ के दोहद से सूचित था, अतः पुत्र का नाम 'मेघकुमार' रखा। युवावस्था में आठ राजकन्याओं के साथ विवाह किया गया। एक बार भगवान् महावीर वहाँ पधारे । मेघकुमार उपदेश सुनकर संयम लेने को उद्यत हुआ। माता के पास से जब आज्ञा लेनी चाही तब माता ने कहा—'पुत्र ! तेरे इस कोमल शरीर से संयम का निर्वाह कठिन है। संयम का पथ तलवार की पैनी धार पर चलने जैसा है। इसलिए सांसारिक वैभव का उपभोग करो।' लेकिन जब महारानी 'धारिणी' ने देखा कि मेघकुमार की भावना तीव्र है, यह किसी भांति संसार में रहने को तैयार नहीं हो रहा है, तब मोह को एक ओर करते हुए कहा—'मेरा कहा मानकर