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२२६ जैन कथा कोष नामक रोग हो गया, जिससे शरीर में भयंकर पीड़ा रहने लगी। उस कृश शरीर में भी मुनि का मनोबल काफी दृढ़ था। महास्थविर 'धर्मघोष' 'कंडरीक' और मुनि को साथ लिये उसी नगर में आये। राजा 'पुंडरीक' दर्शनार्थ आया। अपने लघु सहोदर के शरीर को यों व्याधिग्रस्त देखकर उनसे अपनी दानशाला में रहकर समुचित औषधोपचार कराने की प्रार्थना की।
स्थविर की आज्ञा प्राप्त करके 'कंडरीक' मुनि वहाँ दानशाला में रहकर चिकित्सा कराने लगे। अनेक प्रकार की दवाईयाँ तथा समुचित पथ्य-सेवन से मुनि का तन तो शनैः-शनैः स्वस्थ हो गया, परन्तु उन स्वादु भोजनों में आसक्त हो गया इससे आचार में शिथिलता आ गई। संयम को छोड़कर पुनः
गृहस्थवास में प्रवेश करने की भावना अंगड़ाई लेने लगी। . . - एक दिन पुंडरीकिणी नगरी के अशोक उद्यान में मुनि सशोक बने बैठे
थे। महाराज 'पुंडरीक' को जब पता लगा, तब अन्तःपुर सहित बन्धु-मुनि के पास आया और गुणानुवाद करता हुआ बोला—'मुनिवर ! आपको धन्य है। -संयम लेकर आप आत्म-कल्याण के लिए सचेष्ट हैं। मैं तो महापापी हूँ। मेरे
से तो आपकी भाँति संयम का यह दुर्गम पथ स्वीकार ही नहीं किया जाता।' 'पुंडरीक' की बात सुनकर 'कंडरीक' मुनि कुछ भी न बोले । मौन बने बैठे रहे। राजा 'पुंडरीक' ने मुनि की भावना को देखते हुए कहा—'क्या आप संयमी जीवन से गृहस्थवास को अच्छा मानते हैं?' तब कंडरीक मुनि ने मौका देखकर साफ ही कह दिया—'हाँ, मुझे तो ये भोग प्रिय लग रहे हैं।' ___ राजा ने समझाने का बहुत प्रयत्न किया। भोगों की विरसता भी दिखाई, पर जब मुनि समझते नजर नहीं आये, तब महाराज 'पुंडरीक' ने अपने पारिवारिक जनों को बुलाकर अपने राज्य का अभिषेक कंडरीक को कर दिया और स्वयं अपना पंचमुष्टि लोच करके संयम स्वीकार कर लिया।
इधर 'कंडरीक' मुनि मुनि-पद से राज्य-पद पर आ गये। वे राजसी कामोत्पादक आहार का खुलकर उपभोग करने लगे। खा लेना एक बात है
और उसे पचा पाना दूसरी बात है। आहार पच नहीं सका। शरीर में उग्र वेदना का प्रकोप हो उठा। भयंकर व्याधि से ग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त हो गये। मरकर सातवीं नरक में गये। ___ 'पुंडरीक' मुनि साधना में लीन रहने लगे। अरस-विरस आहार से उनके शरीर में भयंकर वेदना हो उठी। अन्तिम समय निकट देखकर पंच परमेष्ठी का