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जैन कथा कोष २२७ स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त कर सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न हुए। वहाँ से महाविदेह में होकर मोक्ष प्राप्त करेंगे।
विचित्रता यह रही कि जहाँ एक हजार वर्ष तक संयम का पालन करके कंडरीक मात्र अल्प' दिनों में मरकर सप्तम नरक में गया, वहाँ पुंडरीक मुनि एक हजार वर्ष राज्य करके अल्प दिन के संयम से सर्वार्थसिद्धि विमान में गया।
-ज्ञाताधर्मकथा, १६
१३१. पुरुषपुंडरीक वासुदेव 'चक्रपुर' नगर का शासक 'महाशिर' एक प्रतापी और प्रतिभाशाली राजा था। उसके दो रानियाँ थीं—'वैजयन्ती' और 'लक्ष्मीवती'। 'वैजयन्ती' रानी ने चार स्वप्नों से सूचित पुत्र को जन्म दिया जो छठा 'बलदेव' आनन्द कहलाया। महारानी 'लक्ष्मीवती' के सात स्वप्नों से सूचित एक पुत्र हुआ जो छठा वासुदेव 'पुरुषपुंडरीक' कहलाया!
पुरुषपुंडरीक चौथे स्वर्गलोक माहेन्द्र से च्यवन करके आया था। यह. प्रियमित्र मुनि का जीव था। प्रियमित्र मुनि पूर्वभव में 'पोतनपुर' के नरेश के प्रियमित्र थे। महाराज 'प्रियमित्र' की महारानी नाम से भी अनिंद्य सुन्दरी थी
और रूप-रंग-वैभव में भी अनिंद्य सुन्दरी ही थी। 'अनिंद्यसुन्दरी' की रूपमहिमा सुनकर राजा 'सुकेतु' उसे हथियाने चढ़ आया। स्त्री पुरुष की इज्जत होती है। ऐसा कौन कायर एवं क्लीव होगा जो अपने जीते-जी अपनी पत्नी को दूसरे के सुपुर्द कर दे। 'प्रियमित्र' और 'सुकेतु' अपनी-अपनी बात पर अड़कर भिड़ पड़े। संयोग की बात, 'प्रियमित्र' परास्त हो गया और 'सुकेतु' रानी का बलात् हरण करके अपने यहाँ ले गया। प्रियमित्र मन-ही-मन ग्लानि समेटे मुनि बन गया। उग्र साधना के बल पर निदान कर लिया कि मैं 'सुकेतु' का नाशक बनूँ। वही 'प्रियमित्र' मुनि का जीव इस भव में 'पुरुषपुंडरीक' नाम का वासुदेव बना।
उधर सुकेतु भव-भ्रमण करता हुआ विद्याधर 'मेघनाथ' के कुल में 'अरिंजय' नगर के महाराज के यहाँ पुत्र रूप में पैदा हुआ। उसका नाम 'बलि'
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१. कई कथाओं में अढाई दिन का वर्णन आता है और कईयों में सात का। पर मूल
पाठ में समय का कोई उल्लेख नहीं है।