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________________ जैन कथा कोष २१७ अलग हो गया। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं धारण करके सभी तरह से आत्माभिमुख होकर जीवन यापन करने लगा। अन्तिम प्रतिमा में जब उसे अपना तन क्षीणप्राय लगने लगा, तब वर्धमान भावों से अनशन स्वीकार कर लिया। उसे एक महीने का अनशन आया। अन्त में अनशनपूर्वक समाधिमरण प्राप्त करके प्रथम स्वर्ग के अरुणाभ विमान में पैदा हुआ । वहाँ से महाविदेह में होकर मोक्ष को प्राप्त करेगा। -उपासकदशा, अध्ययन ६ १२५. नन्दीवर्धन 'सिंहपुर' नगर के राजा का नाम 'सिंहरथ' और उसके कोतवाल का नाम 'दुर्योधन' था। दुर्योधन बहुत क्रूर, पापात्मा, दुष्ट तथा दुराचारी था। कोतवाल होने के कारण नगर-संरक्षण का भार तो इस पर था ही, अतः प्रत्येक अपराधी से बहुत ही नृशंसता के साथ पेश आता । साधारण-से अपराध पर भी गर्म तांबा, गर्म शीशा, घोड़े-भैंस-बकरी आदि का मूत्र अपराधी को पिलाना उसकं बाए हाथ का खेल था। हथकड़ियाँ, बेड़ियाँ आदि से बाँधना, तलवार, छुरी, भाले आदि से भेदना-पीटना, त्रास देना, तर्जना देना इसका प्रतिदिन का कार्य था। चोर, जुआरी, राजद्रोही, परस्त्री-लम्पट आदि अपराधियों को बहुत निर्ममता से त्रास देता था। यों वर्षों तक जुल्म करने के कारण 'दुर्योधन' ने प्रचुर मात्रा में पापों का संचय किया। ऐसे व्यक्तियों का आयुष्य भी बहुत लम्बा होता है। यहाँ इस दुर्योधन का आयुष्य भी अड़तीस सौ वर्ष का था। वहाँ से मरकर वह छठी नरक में गया। छठी नरक से निकलकर वह 'दुर्योधन' का जीव मथुरा नगरी के महाराज श्रीदास की महारानी 'बन्धुश्री' का पुत्र हुआ। इसका नाम नन्दीवर्धन रखा गया। कुमार नन्दीवर्धन बड़ा होकर कामासक्त बना । महलों में ही अधिक रहने लगा। एक दिन उस दुष्टात्मा ने सोचा-यदि मैं शीघ्र राजा बन जाऊँ तभी ही जीवन तथा यौवन का भरपूर आनन्द उठा सकता हूँ, पर पिताजी के जीवित रहते हुए मुझे राज्य कैसे प्राप्त हो सकता है? यह सोचकर महाराज को मारने का मनही-मन षड्यन्त्र रच लिया। राजा की हजामत बनाने वाले नाई को आधा राज्य देने का प्रलोभन देकर राजा को मारने के लिए तैयार कर लिया। हजामत करतेकरते जब नाई गला काटने को उद्यत हुआ तब उसका हाथ काँप उठा।
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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