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________________ २१८ जैन कथा कोष सोचा- यदि महाराज उस्तरे से नहीं मरे तो मेरी कितनी दुर्दशा होगी ? यह सोचकर भयभीत हो उठा। महाराज के पैरों में गिरकर सारी सच-सच घटना आदि से अन्त तक बता दी । राजा अपने पुत्र की यह काली करतूत सुनकर कुपित हो उठा। सहसा उसे पकड़वाकर अपने पास बुलवाया। कटु शब्दों में फटकारते हुए सबके सामने उसकी काली करतूतें बताईं। कुमार को गर्म कराए हुए लौह- सिंहासन पर बिठाया। गर्म शीशा, तांबा और तेल यह कहकर छिड़कवाया कि राज्याभिषेक जो करना है। लोहे का हार और मुकुट उसे पहनाया, क्योंकि महाराज बनना चाहता था न ! मुकुट के बिना महाराज कैसा? नन्दीवर्धन लाचार-असहाय बना बुरी तरह रोने- छटपटाने लगा, परन्तु अब क्या हो सकता था? यह तो स्वयं उसके किए पाप कर्मों का परिणाम था । बुरी तरह से मरकर प्रथम नरक में गया। वहाँ से अनन्त काल तक संसार में भ्रमण करता हुआ अन्त में मुक्त होगा । – विपाक सूत्र, ६ १२६. नंदीषेणकुमार नंदीणकुमार राजगृह के महाराज ' श्रेणिक' के पुत्र थे। भगवान 'महावीर' का उपदेश सुनकर कुमार विरक्त हो गया। जब साधु बनने को तैयार हुआ, तब देववाणी हुई— 'नंदीषेण, तुम्हारे अभी भोगावली कर्म अवशेष हैं, इसलिए तुम अभी अनगार मत बनो।' 'नंदीषेण' ने बड़े साहस के साथ कहा- 'क्या मैं इतना कायर और सत्त्वहीन हूँ? सभी भोग्यकर्मों को तप-संयम के द्वारा क्षय कर दूँगा, पर संयम अवश्य लूँगा । मेरी साधना में कोई बाधक नहीं बन सकता । ' यों कहकर दीक्षा ले ली और विविध भाँति की तप:साधना में तल्लीन हो गये । तप के प्रभाव से अनेक सिद्धियाँ अर्जित कर लीं । I एक दिन वे भिक्षार्थ गये । संयोगवश एक वेश्या के घर पहुँच गये । भिक्षा का योग पूछा तब कटाक्ष फेंकती वेश्या ने कहा- ' -' यदि पास में कुछ योग बहुत है। भूखे फकीरों के लिए यहाँ कुछ भी नहीं है । ' वेश्या का व्यंग्य सुनकर मुनि का अहं भभक उठा — इसने मुझे पहचाना ही नहीं और मुझे भिखमंगा समझ लिया । फिर क्या था ? अपने लब्धि - बल का उन्होंने प्रयोग किया और धन का ढेर लग गया। मुनि ने घूरकर उस
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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