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जैन कथा कोष २१३ कलाओं में पारंगत बना । पचास राजकन्याओं के साथ 'निषधकुमार' का विवाह कर दिया गया।
एक बार भगवान् नेमिनाथ द्वारिका पधारे। निषधकुमार ने प्रभु के पास श्रावकधर्म स्वीकार किया। प्रभु की सेवा में बैठा था। 'निषधकुमार' का रूपलावण्य तथा मुख का तेज देखकर प्रभु के ज्येष्ठ गणधर 'वरदत्त' ने भगवान् नेमिनाथ से पूछा-'भगवन् ! 'निषधकुमार' ने ऐसे कौन से पुण्य संचित किये थे, जिससे ऐसा सुन्दर रूप मिला?' प्रभु ने सबके सामने ही वरदत्त मुनि की जिज्ञासा शान्त करते हुए कहा—'वरदत्त ! इसी भरतक्षेत्र के 'रोहिड़' नगर में 'महाबल' नाम का राजा था। उसकी रानी का नाम पद्मा था। उसके 'वीरंगत' नाम का एक पुत्र था। बत्तीस कन्याओं के साथ उसका विवाह किया गया। एकदा उसी रोहिड़ नगर में सिद्धार्थ नाम के धर्माचार्य आये। उनका उपदेश सुनकर वीरंगत विरक्त हुआ। संयम स्वीकार कर उग्र साधना करने लगा। तप के द्वारा जब शरीर अस्थि-कंकाल मात्र रह गया, तब अनशन स्वीकार कर लिया। दो महीने के अनशन की परिपालना करके वीरंगत मुनि पाँचवें स्वर्ग में आया। वहाँ से च्यवकर वह यहाँ आया। तप के प्रभाव से 'निषधकुमार' सबको प्रिय, मनोहर तथा चित्ताकर्षक लगता है। . 'वरदत्त' मुनि आदि सभी उपस्थित जन प्रभु की वाणी सुनकर पुलकित हो उठे।
भगवान् ने जनपद में विहार किया। निषधकुमार अपनी श्रावक चर्या में समय लगा रहा था। एक दिन पौषधशाला में पौषध में बैठे इसकी भावना जगी-उन्हें धन्य है जो प्रभु के दर्शन करते हैं, पादस्पर्शन करते हैं। यदि भगवान् द्वारिका के उपवन में पधार जायें तो मैं भी अपना जीवन सफल कर लूँ। __ संयोग की बात, प्रात:काल ही समाचार मिला कि भगवान् 'द्वारिका' के नन्दनवन में विराजे हैं। 'निषधकुमार' ने अपने पौषध को पूरा किया और चार घंटी वाले रथ में बैठकर प्रभु के दर्शनार्थ चल पड़ा। राजकीय साज-सज्जा से प्रभु के दर्शन किये, उपदेश सुना। माता-पिता की आज्ञा लेकर संयमी बन गया। संयमी बनकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। उग्रतम तप:साधना की। नौ वर्ष तक चारित्र पर्याय का पालन किया। अन्त में इक्कीस दिनों का अनशन करके सर्वार्थसिद्ध विमान में जा पहुँचा। वहाँ से महाविदेहक्षेत्र में मनुष्य-भव