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जैन कथा कोष १६६ त्रयोदशी के दिन बेले के तप में एक हजार राजाओं के साथ प्रभु ने संयम ग्रहण किया। केवल दो वर्ष प्रभु छद्मस्थ रहे । पौष सुदी पूर्णिमा के दिन प्रभु ने केवलज्ञान प्राप्त किया। तीर्थ की स्थापना की। भगवान् के संघ में अरिष्ट' आदि ४३ गणधर थे। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाओं का विशाल संघ था। आयु के अन्त में एक सौ आठ मुनियों के साथ सम्मेदशिखर पर ज्येष्ठ सुदी पंचमी के दिन प्रभु मोक्ष पधारे। ये वर्तमान चौबीसी के पन्द्रहवें तीर्थंकर हैं।
धर्म-परिवार गणधर ४३ वैक्रियलब्धिधारी
७००० केवली साधु ४५०० वादलब्धिधारी
२८०० केवली साध्वी ६००० साधु
६४,००० मन:पर्यवज्ञानी ४५०० साध्वी
६२,४०० अवधिज्ञानी ३६०० श्रावक
२,०४,००० पूर्वधर ६०० श्राविका
४,१३,००० –त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, ४/८
११३. धर्मरुचि तपस्वी धर्मरुचि नाम के तपस्वी ने एक बार नंद नाम के नाविक-पुत्र की नाव में बैठकर गंगा नदी पार की। अन्य गृहस्थ तो उसे पैसे देकर चले गये, लेकिन तपस्वी के पास पैसे कहाँ थे? नाविक-पुत्र नंद ने उन्हें तपती बालू में खड़ा कर दिया। काफी देर खड़े रहने के बाद भी जब नंद ने उन्हें न जाने दिया, तब धर्मरुचि को भी क्रोध आ गया। उन्होंने उसे अत्यन्त क्रुद्ध (दृष्टिविषलब्धि) से देखा। नंद उसी समय भस्म हो गया। ___ आर्त परिणामों से मरकर नंद एक धर्मशाला में गृहगोधा (गोह) बना। धर्मरुचि भी उसी धर्मशाला में आकर ठहरे । पूर्व-वैर के कारण गोह बार-बार उन्हें काटने आती। तपस्वी ने उस पर एक ढेला फेंका। जब वह उससे भी न मरी तब क्रुद्ध दृष्टि से उसे जला डाला।
वहाँ से मरकर गोह मृतगंगा नदी के किनारे हंस बना। शीतऋतु में तपस्वी धर्मरुचि भी भ्रमण करते हुए वहीं आये और ध्यानस्थ खड़े हो गये। पूर्व-वैर के कारण हंस अपने पंखों में नदी का जल भरकर लाता और उन पर बरसाता।