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१६६ जैन कथा कोष
ईर्ष्या भी पराकाष्ठा पर जा पहुँची और वे धन्यकुमार को मारने के लिए उतारू हो बैठे। इस बात का जब धन्य को पता लगा, तब वह वहाँ से रात्रि के समय निकल पड़ा। चलते-चलते उज्जयिनी नगरी में पहुँचा । वहाँ अपने प्रतिभा-बल I से राजा 'चण्डप्रद्योत' का मन्त्री बन गया । 'धन्यकुमार' के जाने के बाद 'धनसार' के सारे परिवार का धन नष्ट हो गया। 'धनसार' अपनी पत्नी, तीनों पुत्र और तीनों पुत्रवधुओं को लेकर 'प्रतिष्ठानपुर' को छोड़कर चल दिया ।
वह सारा काफिला मजदूरी करके अपना पेट पालने के लिए उज्जयिनी नगरी में आ पहुँचा। धन्यकुमार को इनकी दुर्दशा को देखकर मन में काफी दुःख हुआ । अपने महल में उन्हें बुलवा लिया और वे सब आनन्द से रहने लगे। पर आदत में परिवर्तन कब आता है? तीनों भाई वहाँ उसके वैभव देखकर मन-ही-मन जलने लगे । यहाँ तक कि 'धन्यकुमार' की सम्पत्ति में सब हिस्सा माँगने लगे । 'धन्यकुमार' ने अपने हृदय को विशाल बनाया। इस सारे राजसी वैभव को छोड़कर वह रात्रि के समय वहाँ से प्रस्थान कर गया । मार्ग गंगादेवी ने इसे शील में दृढ़ निष्ठावान् जानकर चिन्तामणि रत्न प्रदान किया । चिन्तामणि रत्न को लेकर 'धन्यकुमार' 'राजगृही' पहुँचा। वहाँ सेठ कुसुमपाल के सूखे बगीचे में विश्राम किया । 'धन्य' के विश्राम करने के कारण और चिन्तामणि के योग से सारा सूखा बगीचा पुनः हरा-भरा हो गया। सेठ ने प्रसन्न होकर अपनी पुत्री 'कुसुमश्री' का विवाह धन्यकुमार के साथ कर दिया ।
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इसी बीच महाराज ‘श्रेणिक' का पट्टहस्ति सेचनक उन्मत्त हो उठा। उस समय 'अभयकुमार' वहाँ नहीं था। वह महाराज 'चण्डप्रद्योत' के यहाँ 'उज्जयिनी' में बन्दी बना हुआ था । अतः महाराज ' श्रेणिक' चिन्तित हो उठे। हाथी नगर में उत्पात मचा रहा था । यह संकट कैसे मिटे सभी चिन्तित थे। 'धन्यकुंमार' ने हाथी को वश में करके संकट मिटा दिया । महाराज ने अपनी पुत्री 'सोमश्री' का विवाह 'धन्यकुमार' के साथ कर दिया । 'धन्यकुमार' राजगृही में राज-जामाता बन गया ।
उन्हीं दिनों नगर के एक धनाढ्य सेठ 'गोभद्र' की दुकान पर एक काने व्यक्ति ने आकर सेठ को झाँसा देना चाहा। कहने लगा- 'मैंने अपनी आँख आपके पास गिरवी रखी थी, वह मुझे लौटा दीजिए। आप अपनी रकम वापस ले लीजिए।' सेठ भौंचक्का - सा रह गया । राज-जामाता ने उसकी कलई घिसते हुए कहा - 'यह दूसरी आँख निकालकर दो। हम उससे तोलकर तुम्हें